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________________ बौद्ध प्रमाण सिद्धान्तों जैन-समीक्षा में कोई सबल समता नहीं है। यह तर्क करना कि नीलके प्रकाशमें चित् अंशकी कल्पना उतनी ही अयुक्त है जितना सीमित ज्ञानके कारण किसी प्राणीको पुरुष कहना है । अभयदेव और सूक्ष्म विश्लेषण करते हैं और दोनोंकी समताको निर्मूल कर देते हैं। उनका तर्क है कि “सुखादिका प्रकाशन ज्ञानव्याप्त है स्वयं प्रतिपन्न होनेसे ।" तथा "नीलादिप्रकाशन ज्ञानव्याप्त है अन्य प्रतिपन्न होनेके कारण।" में 'ज्ञानव्याप्तत्व' ही साध्य है । किन्तु पहलेका हेतु दूसरेके हेतुसे भिन्न है । प्रथमके 'स्वयं प्रतिपन्नत्व' का अर्थ है कि सुखादिका अनुभव वाह्य हेतुके विना स्वयं ही होता है। तथा दूसरे हेतु 'अन्यप्रतिपन्नत्व' का तात्पर्य है "किसी दूसरे प्रमाणसे ज्ञात होता है ।" सुखादि प्रतिभासका नीलादिप्रतिभाससे सम्बन्ध नहीं किया जा सकता है जिसके बलपर जड़ नीलादि प्रत्ययमें भी सुखादि प्रत्ययका 'त्वप्रतिपन्नत्व' सिद्ध किया जा सके । बौद्ध इन्द्रियविज्ञान में ऐसी समताको स्थान नहीं है। फलतः नीलादि प्रकाशमें स्वप्रकाशता तथा जड़ताका समन्वय नहीं होता, परिणाम यह होता है कि 'नील तथा नीलज्ञान एक हैं।' विज्ञानवादीका यह मत भी सिद्ध नहीं होता। विज्ञानवादीके द्वारा उठाये गये ज्ञान और उसके आकार ( तदाकार ) की समस्याको भी प्रभाचन्द्राचार्य ने अपनी वास्तविक दृष्टिके अनुसार नूतनरूप दिया है। ज्ञानकी उत्पत्तिमें बोध, विषय तथा ज्ञानगत श्राकार कारण नहीं हैं, ज्ञान तथा ज्ञेयके सम्बन्धका निर्णय ज्ञानके अन्तरंग आकारके द्वारा होता है यह उचित मान्यता नहीं है । तथा प्रारम्भमें ज्ञान निराकार उत्पन्न होता है और बादमें किसी प्रकार वस्तुसे सम्बद्ध होकर श्राकार धारण करता है यह भी युक्ति संगत नहीं है। प्रथम विकल्प असंगत है क्योंकि ज्ञानका कभी तथा कहीं भी अपने अन्तरंगरूप द्वारा निर्णय नहीं हुआ है प्रत्युत विषयसे सदा ही सम्बद्ध रहता है। ज्ञेयके विशेष धर्म के निश्चय द्वारा ही ज्ञान तथा ज्ञेयका सम्बन्ध पुष्ट होता है किन्तु कभी भी ज्ञान तथा ज्ञेयके मिश्रित एक रूपसे नहीं होता। दूसरा विकल्प भी इन्हीं हेतुअोंसे अग्राह्य है क्यों कि समस्त प्रत्यय अपने विशेष ज्ञेयसे सम्बद्ध होते हैं । निष्कर्ष यह हुआ कि न ज्ञान अपने अन्तरंगमें श्राकार युक्त और न निराकार ही है। किसी भी अवस्थामें ज्ञानका ज्ञेय होता ही है तथा वह उसका आकार भी ग्रहण करता है। प्राचार्य प्रभाचन्द्रने यह सब प्रतिपादन करते हुए यह भी कहा है कि ज्ञान स्वतंत्र तथा श्रात्मोद्भव है । किन्तु स्वयं उत्पन्न होते हुए भी ज्ञान इन्द्रियों तथा विषयका निमित्त लेता है तथा अर्थका आकार ग्रहण करता है । इन्द्रियां ज्ञानकी साकारताका कारण हैं इस मा यताका बौद्धोंके साथ वे भो खंडन करते हैं क्योंकि वाह्यार्थके अभावमें भी इन्द्रिय व्यापार होता है तथा विना अाकारके ज्ञान होता हो है । वैभाषिक सम्मत निराकार ज्ञानवाद भी परीक्षा करनेपर नहीं टिकता क्योंकि विशेष अर्थ के अभावमें सब प्रकारके ज्ञानकी संभावना है जो अव्यवस्था पैदा करेगी। जबकि यह सत्य है कि हमें विशेष अर्थों के १--"कुतश्चित्प्रमाणात् प्रतीयते ।” २-"स्वकारणैस्तज्जननेनार्थसम्बोधमेवोत्पद्यते । प्र. क. मा. पृ. २८ । ७५
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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