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बौद्ध प्रमाण सिद्धान्तोंकी जैन-समीक्षा
मनोवैज्ञानिकों : समान स्पष्ट बताया है कि स्वप्न में दृष्ट विविध पदार्थों के अाकार जाग्रत अवस्था में उन्हें जाने विना दिख ही नहीं सकते हैं । वे विविध अनुभव ज य संस्कारोंके आश्रित हैं जो चैत यमें सचित हैं । तथा शारीरिक एवं मानसिक उत्तेजन तथा संदर्भ मिलते हो जाग उठते हैं । यदि वाह्य अर्थके विना ही स्वप्न दिखते तो हमें आकाश कमल, छठा भूत, श्रादि दिखना चाहिये था । वाह्यार्थ विना प्रतिभास माननेपर ज्ञानके आकार प्रकारका निश्चय असंभव है । इस अापत्तिसे बचने के लिए समस्त ज्ञानोंके स्रोत अनादि अविद्या जन्य वासनाका योगाचार सहारा लेना चाहेगा किन्तु जैनाचार्य उसे निम्न अन्योन्याश्रयमें डाल देते हैं । यदि वासना प्रतिभासकी विविधताका कारण है तो वह ज्ञानसे भिन्न है अथवा अभिन्न ? यदि . भिन्न है तो विज्ञान वादोको किसो अन्य ज्ञानकी कल्पना करनी पड़ेगी जो इस भेदको ग्रहण करेगा । समत्त प्रत्यय विज्ञान हैं और विज्ञान विना कोई भी प्रत्यय संभव नहीं है, किन्तु इस भेदके माननेपर विज्ञानसे बाहर कोई प्रत्यय मानना ही पड़ेगा । यदि विज्ञान वादा कहे कि वासना पृथक् होकर भी विज्ञानसे उत्पन्न होती है तथा विज्ञानमें भ्रान्त ग्राह्य-ग्राहक सम्बन्ध होता है, तो जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकारका अनुमान कल्पना कराता है कि वासना तथा सम्बन्ध-विज्ञानका सम्बन्ध अवश्य होना चाहिये। योगाचार मतमें ऐसा सम्बन्ध असंभव है क्योंकि उसने उत्पत्तिके दूसरे क्षणमें विज्ञानकी सत्ता तथा सम्बन्ध करानेवाले
आत्माकी स्थितिका निराकरण किया है । वासनाके इस अनुमानके निम्न तीन परिणाम और होंगे। प्रथम तो यह सर्व साधारणके अनुभव तथा व्यवहारके विरुद्ध है क्योंकि सब हो यह जानते हैं कि मन, इन्द्रिय तथा पदार्थ संयोगसे ज्ञान होता है । दूसरे वासना एक ऐसो अदृश्य तथा काल्पनिक वस्तु है जिसे किसी भी वैज्ञानिक ज्ञान सिद्धान्तसे सिद्ध नहीं किया जा सकता । तीसरे यदि वासनाके निमित्तसे साधारण विज्ञान अनन्त श्राकार प्रकार ग्रहण कर सकता है तो उसके द्वारा जड़का चेतन रूपसे प्रत्यय क्यों नहीं होगा ? क्योंकि लोकोत्तर वस्तुको कुछ असंभव तो हो ही नहीं सकता । इन कुपरिणामोंसे वचनेके लिए विज्ञान वादीको अपना मत परिवर्तन करना पड़ेगा और मानना पड़ेगा कि वाह्य अर्थ ही विज्ञानको विविधताके कारण हैं और वासना इस आकार प्रकारके वैविध्यका कारण नहीं है। यदि वासना और विज्ञान अभिन्न हों तो उसे ज्ञानरूपसे प्रत्यय करना चाहिये, वासना रूपसे नहीं ऐसी स्थितिमें पदार्थोंके श्राकार प्रकारकी विविधताका बोध सदाके लिए उलझ जायगा ।
आ० प्रभाचन्द्रकृत मीमांसा
तार्किक गुरु सूक्ष्माति सूक्ष्म तत्त्व परीक्षक श्री प्रभाचन्द्राचार्यने भी योगाचारके वाह्य अर्थ निषेधका खण्डन किया है । प्रमाण सत् वस्तुके ज्ञानकी साधक रूपसे उपेक्षा नहीं करता है इसे ही उन्होंने
१. न्यायावतार कणिका १ पृ. १२ ।
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