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________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ होती है। योगाचार इसमें अनवस्थाकी अाशंका नहीं करता क्योंकि वह 'वासना' को अनादि मानता है। निष्कर्ष यह हुआ कि किसी भी अवस्थामें बोधका निश्चय वाह. पदार्थ द्वारा नहीं होता है किन्तु वह विचारात्मक शक्ति अनादि वासनाका परिपाक और प्रवृत्ति है जिसे प्राणी पूर्व भवोंमें निःसीम रूपसे संचित करता रहा है । बोधका निर्णय भूत तथा वर्तमान वासनाओंके द्वारा होता है एवं तथोक्त वाह्य वस्तुको बोध निश्चायक मानना बृद्धि दोष है, अादि हेतु ओंका ये गाचारने अपना अादर्श सिद्ध करनेके लिए विस्तार किया है । वह कहता है कि यदि वाह्य वस्तुका कोई अपना स्वभाव है और वह बोधजनक है तो वह विविध ज्ञानकेन्द्रोंसे क्यों श्राभास देता है और एक ही इन्द्रियको भी विविध परिस्थितियों में भिन्न भिन्न रूपसे क्यों ज्ञात होता है । ज्ञानभेद वासना शक्तिजन्य तो संभव है किन्तु सत्वादीको अभीष्ट बाह्य वस्तुके स्वभाव जन्य तो नहीं ही हो सकता है । इसप्रकार स्पष्ट है कि विषय तथा बोधका भेद भ्रान्त ज्ञान या परिस्थिति जन्य है। ग्राह्य और ग्राहकका भेद भेद हीन ज्ञानमें लुप्त हो जाता । विषय तथा बोधके इस अभेदका योगाचारने प्रत्यक्षके लक्षणमें भी समावेश किया है । इसके समर्थक सन्दर्भ मध्यकालीन तार्किक गुरू दिङनागके प्रकरणों में मिलते हैं । योगाचारके प्रमाण सिद्धान्तके अनुसार बोध तथा उसकी प्रामाणिकता त्वयं-प्रकाश्य, स्वयं-उत्पन्न बौद्धिक तत्त्व हैं, वाह्य वस्तुसे निरपेक्ष है, बाह्य जगत वास्तविक नहीं है तथा ग्राह्य-ग्राहकभेद ज्ञानसरणिमें अग्राह्य है । अब इस योगाचार के प्रमाण सिद्धान्तको जैन तार्किक दृष्टि से देखिये । अपनी द्वन्द्वात्मक मान्यताके द्वारा विज्ञानवादी जो सिद्ध करना चाहता है वह यही है कि अनादि वासनासे विज्ञान सन्तान उत्पन्न होती है और वाह्य वस्तुएं उसमें थोड़ी भी सहायक नहीं हैं, क्योंकि वे अवस्तु हैं । फलतः विज्ञानवादीका बोध स्ववासी' है, अर्थात 'स्व' से उत्पन्न और स्वका प्रकाशक है। इसके उपरान्त जैनाचार्य उस दोष परम्पराको बताते हैं जो विज्ञान वादीको अभीष्ट प्रमाण सिद्धान्तमें आती है । विज्ञान वादीके मतके जैनखण्डनके दो पक्ष हैं -प्रथम तो निषेधात्मक तथा विध्वंसात्मक है क्योंकि बाहार्थों का ज्ञानमें समावेश करना प्रत्यक्ष तथा अनुमानके विरुद्ध है । तथा दूसरा विधिपरक और रचनात्मक है क्योंकि यह प्रत्यक्ष तथा अनुमान प्रमाण द्वारा बाह्य पदार्थोकी परमार्थ सत्ता सिद्ध करता है। ___समन्तभद्र, अकलंक, सिद्धर्षि गणी, श्रादिने उस हेतु परम्पराको दिया है जो विशद रूपसे सिद्ध करती है कि विषयके विना बोध असंभव है। प्रथम तर्क तो यह है कि वाह्यार्थ विहीन स्वप्न विज्ञानकी समानता द्वारा यह सिद्ध नहीं किया जा सकता कि बोध वाह्य विषयके विना ही हो जाता है । स्वप्नमें मनुष्य वाह्यार्थके बिना वन, देवता, आदिके श्राकारका अनुभव करता है । जैनाचायोंने अाधुनिक १--त. बो. वि. पृ. ४८०-४८८ । २-न्यायवतार, कणिका १, पृ. ११, आदि। ७२
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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