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________________ बौद्ध प्रमाण सिद्धान्तोंकी जैन-समीक्षा जाती है उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। और वह सभी स्थूल पदार्थों में स्पष्ट है, तो विज्ञानवादी कहता है कि इससे भी हेतु साध्यमें सिद्ध न होगा, क्योंकि हम स्वप्न विज्ञानमें 'रूप' या अवयवित्वको देखते हैं किन्तु जागनेपर परमाणु प्रचय रूप स्थूलताका भान नहीं होता । फलतः उक्त हेतुमें 'अनेकान्त' अथवा 'संदिग्धत्व' दोष भी आता है, क्योंकि हेतुको साध्य एकान्तमें अथवा साध्याभाव रूपी दूसरे एकान्तमें ही रहना चाहिये, दोनोंमें नहीं । यदि प्रकृत हेतुके समान साध्य तथा साध्याभाव दोनोंमें हेतु रहे तो वह अनेकान्त दोषसे दुष्ट होगा। फलतः साध्य और पक्षके सम्बन्धमें सन्देह होगा । अतएव विज्ञानवादी बाह्यार्थ अवयवीको अनुमानका अविषय ही मानता है। ग्राह्य-ग्राहक द्वैत विमर्ष उक्त प्रकारसे वाह्यार्थको प्रत्यक्ष तथा अनुमानसे परे सिद्ध करके विज्ञानवादी ग्राह्य तथा ग्राहकके भेदका भी खण्डन करता है। वाह्य जगतका प्रत्यक्ष तथा अनुमानसे निषेध कर देनेके बाद उक्त कार्य विज्ञानवादीके लिए सुकर हो जाता है। ग्राह्य अर्थात् वोधके विषयकी सार्थकता ग्राहकके सद्भावमें ही है तथा ग्राहक भी ग्राह्य पदार्थोंके सद्भावमें सार्थक होता है। फलतः जब वाह्य जगत रूपी ब्राह्य समाप्त कर दिये गये तो ग्राहक स्वयं निरर्थक हो जाता है तथा इन दोनोंके भेदके लुप्त हो जानेके बाद विशुद्ध ज्ञान ( विज्ञप्तिमात्रता ) ही शेष रह जाता है जो कि स्वयं प्रकाश्य है । विज्ञान अनंश, एक और क्षणिक है फलतः मीमांसक सम्मत ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञानकी त्रिपुटी उसमें नहीं बनती है । विज्ञानका सार 'स्वसंवेदन' मात्र है। यह स्व प्रकाशक, स्वस्थ चित्तवृत्ति है, जो किसी वाह्य प्रकाशककी अपेक्षा नहीं करती । विज्ञानवादीकी दृष्टिमें बोध किसी पदार्थका बोध नहीं होता है, और न बोधके लिए वस्तुकी अावश्यकता ही है । उसके अनुसार स्थिति यह है कि ज्ञेय और ज्ञाता दोनोंमें तार्किक दृष्टि से ही भेद है अन्यथा वे दोनों बोधकी दो अभेद्य अवस्थाएं हैं। ज्ञान प्रक्रिया 'ज्ञानसे पदार्थ है. 'पदार्थसे ज्ञान' नहीं । किन्तु ज्ञान पदार्थका जनक नहीं है । यतः ज्ञान और पदार्थका बहुधा युगपत् ही बोध होता है अतः योगाचार दोनोंमें एकरूपता मानता है। 'नील और नील-ज्ञानमें भेद नहीं है क्योंकि दोनोंकी उपलब्धि एक साथ होती है | साधारण व्यक्तिको ज्ञान और ज्ञेयका जो भेद प्रतीत होता है वह भ्रान्ति है । ज्ञापक होनेका तात्पर्य वस्तुका ज्ञाता होना है पर इसका यह तात्पर्य कदापि नहीं कि ग्राह्य और ग्रहीतामें कोई भेद या सीमा है । ज्ञान किसी विशिष्ट आकारके श्राश्रयसे होता हैं अतः ज्ञान कभी भी निराकार नहीं होता, किन्तु श्राकार ज्ञानमें पूर्णरूपसे नहीं रहता । उसका अाधार तो पुरातन अनुभवसे उत्पन्न वासना होती है; जिसका आधार दूसरी वासना और दूसरीका तीसरी इस प्रकार अनन्त सन्तान १-शुन्यबाद श्लो० ५९, न्याय रत्नाकर। २-प्रमाण समुच्चय (१.३) तथा न्यायप्रवेश । ७१
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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