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________________ खजुराहाके खंडहर देखते ही बनती है । अंग प्रत्यंगमें कलाकारने कैसी कैसी कल्पना की है यह अध्ययनकी चीज है । स्त्रीके खड़े होनेमें, बैठनेमें चलने फिरनेमें, समीमें एक विशेष सौन्दर्य की योजना है । उसके प्रत्येक हावभावमें कोमलता, क्रिया विदग्धता और कटाक्ष वर्तमान् है । प्रत्येक हावभावमें उंगलियां और अांखें विशेष क्रियाशील हैं । प्रत्येक उङ्गलीका कुछ नियत काम सा प्रतीत होता है, जैसे चन्दन लगाने में पेंतीका ही प्रयोग किया जाता है। सोने अोर नितम्बमें खजुराहाका कलाकार सौन्दर्य का विशेष अनुभव करता है। प्रत्येक मुद्रामें सीने और नितम्बों की उसने प्रधानता दी है। नितम्ब भागको सामने लानेके लिए उसने शरीरको इतना मरोड़ दिया है कि कहीं कहीं पर वह प्रकृतिके भी विपरीत हो गया है। कटि इतनी कोमल और लचोली है कि वह यौवनके भारको सम्हाल ही नहीं सकती । ऐसा मालूम होता है कि खजुराहाका कलाकार भद्देपन या गंवारुपनको जानता ही नहीं था। पुरुषके लिए खजुराहाकी स्त्रियां उसकी विषय पिपासाको साधिका मात्र हैं। कलाकारने अपनी वासना मय भावनाओंको इतना खुलकर अभिव्यक्त किया है कि स्त्री की सहज लजाका भी उसे ध्यान नहीं रहा । उसने स्त्रीको पुरुषों से भी अधिक कामुक और विषयतृषित दर्शाया है। वही प्रेम और प्रसंगके व्यापारमें अग्रसर और पुरुषसे भी अधिक आनन्द लेती हुई प्रतीत होती हैं । आनन्दोद्रे कमें वह पुरुषमें समा जाना चाहती है। पुरुषकी मरजीपर वह इतनो झुक गयी है कि उसके अन्दर हड्डियों का भी अस्तित्व ज्ञात नहीं होता । वह अपनी प्रत्येक अवस्थामें पुरुषको रिझानेका षड्यन्त्र सा ही करती नजर आती है । कहीं वह वेणी सम्हाल रही है, कहीं अांख में अंजन दे रही है, कहीं अंगड़ाई ले रही है, कहीं आभूषणों को पहन रही है, कहीं पैरसे कांटा निकाल रही है । वह अपने अन्तःपुरमें है और यौवनकी उत्ताल तरंगोंसे खुलकर खेल रही है, पर उसकी सब तैयारी नेपथ्यमें सजते हुए पात्रके समान किसी विशेष अभिनयके लिए ही है । हाँ, उसकी प्रत्येक मुद्रामें अनन्त यौवन, विषय पिपासा और स्वास्थ्य की छाप है । ___ खजुराहा का पुरुष लम्पट और व्यभिचारी नहीं। वह प्रेम और स्त्रीप्रसंग को एक पवित्र यज्ञ सा समझता हुआ प्रतीत होता है । उसके पीछे भी एक धार्मिक भावना अन्तर्निहित सी ज्ञात होती है । उसका हृदय शुद्ध है तथा लक्ष्य भी । वह विषय का रोगी नहीं । यद्यपि खुजराहा के पत्थर पत्थर में काम की दशा का अविर्भाव होता है तो भी उस वायुमंडल में आधुनिक अस्वस्थता, ह्रास और पतन के चिन्ह नहीं । उस युग के पुरुषों में यज्ञ की भावना थी और यही उनके प्रत्येक कार्य के पीछे शक्ति थी। उनमें आत्मबल तथा चरित्रबल या । आजकल हमारे हृदयों में कुरुचि समा गयी है और हम वस्तु का ठीक ठीक मूल्यांकन नहीं कर पाते । यही रोग हमें जीवन का सदुपयोग नहीं करने देता। शृगार-मूर्तियों के अतिरिक्त पूजा, शिकार, मल्लयुद्ध, हाथियोंके युद्ध, फौजकी यात्रा, इत्यादि अनेक
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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