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________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ दूसरी युद्ध जनित हिंसा है, जो अपनी, अपने कुटुम्बकी, अपने धर्म तथा देशकी रक्षाके लिए करनी पड़ती है। कोई भी जैनाचारका पालक प्रत्यक्ष या परोक्षरूपसे हिंसा करना नहीं चाहता । वह किसीको मारने के इरादेसे नहीं मारता, फिर भी वह अन्यायका प्रतीकार तो करता है। उक्त स्थितिमें यदि युद्ध अनिवार्य हो जाता है तो वह उससे विमुख नहीं होता। क्योंकि गृहस्थ होनेके नाते उसपर अनेक उत्तरदायित्व हैं । धर्मके नाम पर हिंसा भारतवर्षमें धर्मके नाम पर देवी देवताओंके सामने बलिदानके रूपमें हिंसा होती है । अनेक मनगढन्त वाक्य रचकर इस हिंसाकी पुष्टि की जाती है और उसे धर्म कहा जाता है । जैनाचारमें यह हिंसा सब हिंसात्रोंसे अधिक निंद्य है। क्योंकि इस हिंसाके द्वारा केवल प्राणीका घात ही नहीं होता। बल्कि धर्म के नामपर जनताको पथभृष्ट किया जाता है । अतः यह हिंसा सर्व प्रथम त्याज्य है। जैनाचारके दो रूप-- जैनाचारके दो रूप हैं—एक गृहस्थाचार और दूसरा साधुका श्राचार । हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह ये सब पापोंके मूल हैं । जो इनसे पूरे तरहसे बचे हुए हैं, वे मुनि या साधु कहलाते हैं । विपत्तियोंका पहाड़ टूट पड़नेपर भी वे हिंसा या कोई अन्य पाप नहीं करते । वे परिपूर्ण ब्रह्मचारी तथा तिलमात्र भी परिग्रह अपने पास नहीं रखते । वे सदा इस बातका ध्यान रखते हैं कि हमारे किसी कार्यसे छोटे से छोटे कीट, पतङ्गको भी कष्ट न पहुंचे। ये जीव मात्रपर सम भाव रखते हैं । उनकी दृष्टिमें सभी जीवधारी समान हैं । वे सबका कल्याण चाहते हैं । उनका सारा समय ज्ञान, ध्यान और तपमें ही बीतता है। वे कभी भी अपने अपराधोंकी उपेक्षा नहीं करते । यदि उनसे कोई अपराध बन पड़ता है, तो उसका वे प्रायश्चित्त लेते हैं । जन कल्याणकी भावनासे वे सदा देश देशान्तरोंमें विचरते रहते हैं और गृहस्थोंको सुमार्ग बताते हैं । इस प्रकार लौकिक और पारलौकिक हित-साधनमें जैन मुनिश्रोंका बड़ा हाथ है। गृहस्थाचार-- पहले बताया जा चुका है कि जैन गृहस्थ अाक्रमणात्मक हिंसा नहीं करता किन्तु वह रक्षात्मक हिंसाका त्याग नहीं करता । अतः वह अहिंसा-अणुव्रतका पालक है। शेष व्रतोंका भी वह एक देशसे ही पालन करता है । क्योंकि सम्पूर्ण रूपसे पालन करना गृहस्थावस्थामें संभव नहीं है । वह हित और मित वचन बोलता है । अनैतिक ढंगपर पराये धनको गृहण नहीं करता। अपनी विवाहिता पत्नी तक ही अपनी भोग-लालसा सीमित रखता है तथा उतने ही धनका संचय रखता है जितना उसे अपने कौटुम्बिकनिर्वाहके लिए आवश्यक होता है । ये पांच गृहस्थके अणु-व्रत हैं । ईन पांच अणुव्रतोंको पूर्ण करनेकी दृष्टिसे गृहस्थके सात व्रत और भी हैं। ११०
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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