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________________ मानवजीवन में जैनाचारकी उपयोगिता भोगों में श्रासक व्यक्ति जनसमुदाय के लिए एक भयंकर जन्तु है। वह न केवल अपने स्वास्थ्यकी ही हानि करता है, बल्कि भावी सन्तानको भी निर्बल बनाता है । तथा इस तरह समाजमें दुराचार और दुर्बलताको फैलानेका पाप करता है । अतः प्रत्येक स्त्रीको अपने पति के साथ और प्रत्येक पुरुषको अपनी ही पत्नीके साथ संयमित जीवन बिताना चाहिये । चौथा यह कि संचय वृत्तिको नियमित करना चाहिये; क्योंकि आवश्यकता से अधिक संग्रह करने से मनुष्य की तृष्णा ही बढ़ती है तथा समाज में असंतोष फैलता है । यदि वस्तुओं का अनुचित रीति से संग्रह न किया जाय तो प्राणियोंको जीवन निर्वाहके साधनों की कमी नहीं पड़ सकती । अतः जो श्रुति संग्रह करता है वह जनता को जानबूझकर कष्ट देता है । इस तरह अहिंसाको व्यावहारिक रूप देनेके लिए सत्य, चौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रह - परिमाणका पालन करना आवश्यक है । उसके विना हिंसाका ढोंग रचना व्यर्थ है तथा हिंसाको जीवनमें उतारे विना सुख शान्तिकी चाह करना व्यर्थ है। प्रत्येक प्राणीका यही आचार धर्म बतलाया था जो श्राज जैनाचार कहा जाता है । भगवान ऋषभदेवने जैनाचार का मूलाधार -- जैनाचार का मूलाधार अहिंसा है । सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह हिंसा के ही — विभिन्न रूप हैं । यथार्थ बात न कहने से, दूसरे व्यक्तिको भिथ्या-परिज्ञान होने से हानि की संभावना है तथा अपने चित्त में भी कलुषता उत्पन्न हो जाती है। अतः सवचन हिंसाका उत्पादक होनेसे हिंसा ही है । इसी तरह पर धनका अपहरण अपने व परके चित्तमें कलुषता उत्पन्न करनेके कारण हिंसा है । यदि वह मालिककी राजीसे ले लिया जाता है तो उसमें हिंसा नहीं है । परस्त्री गमन भी तीव्र रागका कारण होनेसे हिंसा है । क्यों कि रागादि परिणाम हिंसा स्वरूप हैं । इसी तरह परिग्रहका श्रुति संचय दूसरे मनुष्योंको गरीब बनाता है । उनकी रोटी छीनकर उन्हें दुखी करता है इसलिए वह भी हिंसा ही है । सारांश यह है -- जिन कामोंसे दूसरोंको संक्लेश होता है और अपने गुणोंकी हानि होती है वे सम्पूर्ण कार्य हिंसा हैं । हिंसाका रूप और उसका त्याग- हिंसा दो प्रकारकी है – एब रक्षणात्मक और दूसरी आक्रमणात्मक । जो हिंसा आत्मरक्षा के लिए अनिवार्य हो वह रक्षणात्मक है । उदाहरण के लिए कोई गृहस्थ व्यापार, उद्योग और कृषि, आदि आजीविका के साधनों के विना नहीं रह सकता है। भले ही वह हिंसक व्यापारोंको छोड़ दे तो भी व्यापार में परोक्ष हिंसा अवश्य होती है। गृहस्थ इस श्रारम्भ-जनित हिंसाका त्याग नहीं कर सकता फिर भी वह आक्रमणात्मक हिंसा के द्वारा किसीका धन नीति पूर्वक नहीं छीनता । किसीको सताता नहीं और न किसीके गुणोंका घात करता है । १०९
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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