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________________ वर्णी-अभिनन्दन ग्रन्थ (ख) लग लग ब= लग अ + लग लग अ (ग) लग य = बलग ब (घ) लग लग य = लग ब+जग लग ब = लग अ+लग लग + लग अ । (च) लग द= 4 लग य (छ) लग लग द = लग य+लग लग य, तथा आगे । ( ८ ) ' लग लग द ब । इसकी विषमता आगे भी विषमताको उत्पन्न करती है - ब लग ब+लग ब+लग लग ब बर । संस्कृत गणित ग्रन्थों में इस प्रकारके लघुगणक नियम नहीं मिलते हैं । मेरी दृष्टि से यह सर्वथा जैनियोंका अविष्कार था और उन्होंने इसका प्रयोग भी किया था। इसकी सारिणी बनानेका कोई प्रयत्न नहीं किया गया था। इसीलिए यह परिष्कृत विचार भी न सिद्धान्त रूपसे विकसित हुआ और न अंकों गण में सहायक हो सका । सच तो यह है कि उतने प्राचीन युगमें गणित लघुगणकके प्रयोग योग्य विकसित नहीं था । अतः उस युग में भी इन नियमों का प्रयोग ही अधिक आश्चर्यकारी है । भिन्न - जब 'स्थानमान' का प्रयोग नहीं होता था तब भजन या भाग कठिन था । यद्यपि भिन्न सम्बन्धी अंकगणितीय मूल क्रियाएं ज्ञात थीं तथापि गणना में उनका प्रयोग करना सरल न था । उस समय के अंकगणितज्ञ इसके लिए विविध प्रकारोंकी शरण लेते थे, तथा इनसे बहुत समय बाद मुक्ति मिली थी | स्थानमान के प्रयोगके पहिले प्रयोगमें श्राये कतिपय प्रकारोंको नीचे दिया जाता है । ये सब भी घबला टीकासे हैं (8) न‍ = न+ न+ (न/प) (२) म संख्या में द तथा दा भाज होंसे भाग दीजिये तथा ख और खा को भजनफल ( या भिन्न) आने दीजिये; जैसा कि श्रागे गुरूसे म को द + दा के द्वारा भाग देनेवर अये फल से स्पष्ट है ख १+ (ख-खा) म ख द+दा (खा/ख) + १ (३) यदि (४) यदि म द अ न १+१ =ख और - अथवा ब अ = ख, तब ब+ब 3 मा = खा, तत्र द ( ख - खा ) + मा = म द = ख ४९० ख न+१
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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