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________________ वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ और केवल ज्ञानको क्षायिक कहा है किंतु आचार्य कुंदकुंदके दर्शनकी विशेषता यह है कि वे सर्वगम्य परिभाषाका उपयोग करते हैं । अतएव उन्होंने क्षायोपशमिक ज्ञानोंके लिए विभावज्ञान और क्षायिक ज्ञानके लिए स्वभावज्ञान इन शब्दों का प्रयोग किया है । उनकी व्याख्या है कि कर्मोपाधि वर्जित जो पर्याय हों वे स्वाभाविक पर्याय हैं और कर्मोपाधिक जो पर्याय हों वे वैभाविक पर्याय हैं । इस व्याख्या के अनुसार शुद्ध आत्माका ज्ञानोपयोग स्वभावज्ञान है और शुद्ध आत्माका ज्ञानोपयोग विभावज्ञान है । प्रत्यक्ष-परोक्ष श्राचार्य कुंदकुंदने पूर्व परम्परासे श्रागत प्राचीन श्रागमिक व्यवस्था के अनुसार ही ज्ञानोंमें प्रत्यक्षत्व-परोक्षत्वकी व्यवस्था की है। पूर्वोक्त स्व पर प्रकाशकी चर्चाके प्रसङ्गमें प्रत्यक्ष-परोक्ष ज्ञानकी जो व्याख्या दी गयी है वह प्रवचनसार ( १ - ४०.४१, ५४-५८ ) में भी है। किंतु प्रवचनसार में उक्त व्याख्याको युक्ति से भी सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है। इनका कहना है कि दूसरे दार्शनिक इन्द्रियजन्य ज्ञानोंको प्रत्यक्ष मानते हैं किंतु वह प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है ? क्यों कि इन्द्रियां तो अनात्मरूप होने से परद्रव्य हैं । श्रतएव इन्द्रियोंके द्वारा उपलब्ध वस्तुका ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं हो सकता । इन्द्रिय जन्य ज्ञानके लिए परोक्ष शब्द ही उपयुक्त है । क्यों कि परसे होनेवाले ज्ञान ही को तो परोक्ष कहते हैं । ज्ञप्तिका तात्पर्य -- ज्ञानद्वारा अर्थ जाननेका मतलब क्या है ? क्या ज्ञान अर्थ रूप होजाता है अर्थात् ज्ञान और ज्ञेयका भेद मिट जाता है ? या जैसा अर्थका आकार होता है वैसा आकार ज्ञानका हो जाता है ? या ज्ञान में प्रविष्ट हो जाता है ? या अर्थ ज्ञानमें प्रविष्ट हो जाता है ? या ज्ञान अर्थसे उत्पन्न होता है ? इन प्रश्नोंका उत्तर श्राचार्यने अपने ढंग से देनेका प्रयत्न किया है । आचार्यका कहना है कि ज्ञानी ज्ञान स्वभाव है और अर्थ ज्ञेय स्वभाव । श्रतएव भिन्न 'स्व' वाले ये दोनों स्वतन्त्र हैं एककी वृत्ति दूसरे में नहीं है । ऐसा कह करके वस्तुतः श्राचार्यने यह बताया है कि संसार में मात्र विज्ञानाद्वैत नहीं, बाह्य अर्थ भी है। उन्होंने दृष्टान्त दिया है कि जैसे चक्षु अपने में रूपका प्रवेश न होने पर भी रूपको जानती है वैसे ही ज्ञान बाह्यार्थीको विषय करता है । दोनोंमें विषय-विषयीभाव रूप सम्बन्धको छोड़कर और कोई सम्बन्ध नहीं । अथोंमें ज्ञान है इसका तात्पर्य बतलाते हुए आचार्य इन्द्रनील मणिका दृष्टान्त दिया है और कहा है कि जैसे दूध के बर्तन में रखी हुई इन्द्रनील मणि अपनी दीति से १, नियमसार १०, ११, १२ । २, नियमसार १५ । ३, प्रवचनसार ५७ ५८ ४. प्रवचन. १ २८ । ५. प्रवचन. १ २८, २९ । ४०
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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