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जैन-न्यायका विकास श्री पं० दरबारीलाल न्यायाचार्य कोठिया, आदि जन न्यायकी भूमिका,
जैनन्यायके विकासपर विचार करनेके पहले उसके प्राक् इतिहास और उद्गमपर एक दृष्टि डाल लेना उचित एवं आवश्यक है ।
जैन-अनुश्रुतिके अनुसार जैन धर्ममें इस युग-सम्बन्धी चौबीस तीर्थङ्कर ( अर्हत्-धर्म प्रवर्तक महापुरुष ) हुए हैं । इनमें पहले तीर्थङ्कर श्री ऋषभदेव हैं, जिन्हें आदिब्रह्मा, आदिनाथ अोर वृषभ भी कहा जाता है और जिनका उल्लेख भागवत, श्रादि वैदिक पुराण-ग्रन्थोंमें भी हुअा है एवं जिन्हें जिनधर्मप्रवर्तक बतलाया गया है । इनके बाद क्रमशः विभिन्न समयोंमें बीस तीर्थङ्कर और हुए' पार जो महाभारत कालसे बहुत पूर्व हुए हैं । इनके पश्चात् महाभारतकालमें श्रीकृष्ण के समकालीन बाईसवें तीर्थङ्कर अरिष्टनेमि हुए, जो उनके चाचा समुद्रविजयके राजपुत्र थे । इनके कोई एक हजार वर्ष पीछे तेईसवें तीर्थङ्ककर पार्श्वनाथ हुए, जो काशीनरेश विश्वसेनके राजकुमार थे । इनके अढाई सौ वर्ष बाद चौबीसवे तीर्थङ्कर वर्द्धमान-महावीर हुए, जो म० बुद्ध के समकालीन हैं और जिन्हें अाज लगभग अढाई हजार वर्ष हो गये हैं। ये सभी तीर्थङ्कर एक दूसरेसे काफी अन्तराल पर हए हैं।
जैनधर्मकी अत्यन्त प्रामाणिक मान्यता है कि ये तीर्थङ्कर जो धर्मोपदेश देते हैं उसे उनके गणधर (योग्यतम प्रधान शिष्य) बारह अङ्गोमें निबद्ध करते हैं, जिन्हें जैन शास्त्री भाषामें द्वादशाङ्ग श्रुत' कहा जाता है । इस द्वादशाङ्गश्रुतका जैन लोक आर्ष, आगम सिद्धान्त, प्रवचन, आदि संज्ञाओं द्वारा भी उल्लेख करते हैं । इस तरह ऋषभदेवसे लेकर वर्द्धमान महावीर तकके सभी ( चौबीसों ) तीर्थ
१ उनके नाम ये हैं-अजित, सम्भव, अभिनन्दन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श, चन्द्र पम, पुष्पदन्त, शातल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, शान्ति, कुन्थु, अर, मटिल, मुनिसुव्रत और नाम ।
२ इन सबका विस्तृत स्वरूपादि विवेचन अकलकदेव (वि. ७ वीं शती ) कृत तत्त्वार्थवार्तिक और 'पखण्डागम' (वि. १ ली शती) की विशाल टीका वीरसेना वार्य (वि. ९ वीं शती) कृत 'धवला' की १ जिन्द (पृ. ९६---१२२) में देखिए।