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जैन - न्यायका विकास
ङ्करोंका उपदेश 'द्वादशाङ्ग श्रुत' कहलाता । यह 'द्वादशाङ्ग श्रुत' १ अङ्ग प्रविष्ट ( द्वादशाङ्ग ) और २ श्रृङ्गबाह्यके भेदसे दो प्रकारका है । इन दोनोंके भी उत्तर भेदोपभेद विविध हैं । प्रविष्ट अर्थात् द्वादशाङ्गश्रुतके बारह भेद हैं । वे इस प्रकार हैं-१ श्राचार, २ सूत्रकृत्, ३ स्थान, ४ समवाय, ५ व्याख्याप्रज्ञप्ति, ६ नाथधर्मकथा, ७ उपासकाध्ययन, ८ श्रन्तकृद्दश, ९ अनुत्तरौपपादिक दश, १२ प्रश्नव्याकरण, ४१ विपाकसूत्र और १२ दृष्टिवाद । दृष्टिवादके भी पांच भेद हैं-१ परिकर्म, २ सूत्र, ३ प्रथमानुयोग, ४ पूर्वंगत और ५ चूलिका । इनमें परिकर्मके ५, पूर्वगतके २४ और चूलिका ५ उत्तरभेद भी हैं । परिकर्मके ५ भेद ये हैं- १ चन्द्रप्रज्ञप्ति, २ सूर्यप्रज्ञप्ति, ३ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, ४ द्वीपसागर प्रज्ञप्ति चौर ५ व्याख्या प्रज्ञप्ति ( यह पांचवें अङ्ग व्याख्या प्रज्ञप्तिसे अलग है ) । पूर्वगत के १४ भेद निम्न प्रकार हैं-१ उत्पाद, २ श्राग्रायणीयपूर्व, ३ वीर्यानुप्रवादपूर्व, ४ अस्तिनास्तिप्रवाद, ५ ज्ञानप्रवाद, ६ सत्यप्रवाद, ७ श्रात्मप्रवाद, ८ कर्मप्रवाद, प्रत्याख्यातनामधेय १० विद्यानुवाद ११ कल्याणनामधेय, १२ प्राणावाय, १३ क्रियाविशाल, और १४ लोकविन्दुसार । चूलिकाके ५ भेद इस प्रकार हैं -१ जलगता, २ स्थलगता, ३ मायागता, ४ रुपगता और ५ श्राकाशगता ।
श्रुतका दूसरा भेदजो अङ्ग बाह्य है उसके १४ भेद हैं । वे ये हैं – १ सामायिक, चतुर्विंशति स्तव, ३ वन्दना, ४ प्रतिक्रमण, ५ वैनयिक, ६ कृतिकर्म, ७ दशवैकालिक, ८ उत्तराध्ययन, ९ कल्पव्यवहार, १० कल्याकल्प्य, ११ महाकल्प, १२ पुण्डरीक, १३ महापुण्डरीक और १४ निबिद्धिका । यह अङ्गबाह्यश्रुत अङ्गप्रविष्ट श्रुतके श्राधारसे आचार्यों द्वारा रचा जानेसे 'अङ्गबाह्य' कहलाता है और अङ्गप्रविष्ट तीर्थङ्कर सर्वज्ञ देवके साक्षात् उपदेशोंको सुनकर विशिष्टबुद्धि गणधरों द्वारा संकलित किया जाता है और इसलिए उसे ङ्ग प्रविष्ट कहा जाता । श्रुत बहुविध शाखा, उपशाखा और प्रशाखाओं में भी विभक्त है और बहुत विशाल तथा समुद्रकी तरह गम्भीर एवं अपार है । इस द्वादशाङ्ग श्रुतके श्राधारसे ही उत्तरकालीन आचार्य विविध विषयक ग्रन्थराशि रचते हैं । इन बारह अङ्गों में जो बारहवां 'दृष्टिवाद' श्रृङ्ग है उसमें विभिन्न वादियोंकी मान्यताओंका निरूपण और समालोचन रहता है । यह 'दृष्टिवाद' श्रुत ही जैन मान्यतानुसार 'जैनन्याय' का उद्गम स्थान है । अतएव श्रुतप्रवाहकी अपेक्षा जैनन्यायका उद्गम भगवान् ऋषभदेवके द्वादशाङ्ग श्रुतगत दृष्टिवाद तक पहुंच जाता है ।
यद्यपि भगवान् ऋषभदेवसे लेकर भगवान् पार्श्वनाथ तक का द्वादशाङ्ग श्रुत विच्छिन्न और लुप्त हो जाने से वर्तमानमें अनुपलब्ध एवं अप्राप्त है तथा वर्द्धमान महावीरका द्वादशाङ्ग श्रुत भी आज पूरा उपलब्ध नहीं है केवल उसका बारहवां दृष्टिवाद अङ्गही अंश रूपमें पाया जाता है, शेष ग्यारह अङ्ग और बारहवें अङ्गका बहु भाग नष्ट और लुप्त हो चुके हैं । यद्यपि श्वेताम्बर परम्परा ग्यारह की उपलब्धि और बारहवें अङ्गका विच्छेद स्वीकार करती है । तथापि प्रामाणिक श्राचार्य
१ “... एषां दृष्टिशतानां त्रयाणां षष्ट्युत्तराणां प्ररूपणं निग्रहश्च दृष्टिवादे क्रियते " -धवला जिल्द १ पृ० १०८ ।
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