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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ
परम्परा, जैन-अनुश्रुतियों और जैन पुराणोंके विश्वसनीय आख्यातोंसे प्रकट है कि भगवान् महावीरके पहले सुद्र कालमें भी श्रुत प्रवाह प्रवाहित था और मुख्यतः वह मौखिक था-दृढ धारण-शक्तिके अाधारपर उसे स्थिर रखा जाता था ! भगवान महावीरका द्वादशाङ्ग श्रुत भी बहुत काल तक लगभग उनके पांच सौ वर्ष बाद तक प्रायः मौखिक ही रहा और बहुत पीछे उसे अांशिक रूपसे निबद्ध-ग्रन्थरचना रूपसे संकलित-किया गया है।
अाज भी जो हमें दृष्टिवादका अंशरूप श्रुतावशेष प्राप्त है और जो लगभग दो हजार वर्ष पूर्वका रचित है उसमें भी जैनन्यायके उद्गमबीज मिलते हैं। श्रा० भूतबलि और पुष्पदन्तकृत 'पटखण्डागम' में 'सिया पज्जत्ता, सिया अपज्जत्ता', 'मणुस अपजत्ता, दब्ब पमाणेण केवडिया ? असंखेजा' तथा प्राचार्यमूर्धन्य कुन्दकुंद स्वामीके प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, आदि अागम ग्रंथोंमें 'जम्हा', 'तम्हा', 'सिय अस्थि णत्थि उहयं' जैसे युक्ति प्रवण शब्दप्रयोग और प्रश्नोत्तर प्रचुरतासे उपलब्ध होते हैं । जिनसे स्पष्ट है कि जैनन्यायका उद्गम द्वादशाङ्ग श्रुतगत 'दृष्टिवाद' अङ्ग है। श्वेताम्बर अागमोंमें भो 'से केणठेणं भंते, एवमुच्चई', 'जीवाणं भंते ? किं सासया असासया ? गोयमा ! जीवा सिय सासया सिय असासया । गोयमा ! दव्वट्टयाए सासया भावट्टयाए असासया' जैसे तर्क गर्ने प्रश्नोत्तर जगह जगह पाये जाते हैं । इसलिए हम कह सकते हैं कि जैनन्यायके उनमें भी बीज निहित हैं । श्री उपाध्याय यशोविजय' (ई० १५ बी शती ) ने तो स्पष्टतया कहा है कि "स्याद्वादार्थो दृष्टिवादार्णवोत्थः" अर्थात् स्याद्वादार्थ-जैनन्याय, दृष्टिवादरूप अर्णव ( समुद्र) से उत्पन्न हुआ है । वस्तुतः 'स्याद्वाद-न्याय' ही जैनन्याय है और इसीलिए प्रत्येक जैन तीर्थङ्करके उपदेशको 'स्याद्वादन्याय' युक्त कहा गया है। स्वामी समन्तभद्र ( वि. सं. २ री, ३ री शती) जैसे युगप्रवर्तकाचार्योंने भ० महावीर और उनके पूर्ववर्ती सभी तीर्थङ्कारोंको 'स्याद्वादिनो नाथ तवैव युक्तम् २ 'स्याच्छब्दस्तावके न्याये', 'स्याद्वादन्याय विद्विषाम्'४ अादि पदप्रयोगों द्वारा स्याद्वादन्याय प्रतिपादक उद्घोषित किया है। अतः यह मानने योग्य है कि जैनन्यायका उद्भव 'दृष्टिवाद' से हुआ है।
___ कुछ लोगोंका रत है कि जैनन्याय, ब्राह्मणन्याय और बौद्ध न्यायके पीछे प्रतिष्ठित हुआ है इसलिए उसका उद्भव उन्हीं दोनों न्यायोंसे हुआ प्रतीत होता है। परन्तु उनका यह मत अभ्रान्त नहीं है; क्योंकि जब हमें भगवान् महावीरके उपलब्ध उपदेशोंमें विपुल मात्रामें जैनन्यायके बीज मिलते हैं और खासकर इस हालतमें, जब उनके उपदेशोंका संग्रहरूप एक दृष्टिवाद नामका स्वतंत्र अङ्ग ही ऐसा मौजूद
१ देखो, अष्टसहली टीका पृ. १ । २ स्वयम्भूस्तोत्र गत शम्भव जिन स्तोत्र श्लोक १४ । ३ अरजिन स्तोत्र श्लो १०२ । ४ आप्तमी० श्लो. १३ ।
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