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जैन-न्याय विकास
है जिसमें विभिन्न दृष्टियों, मतों, सिद्धान्तोंका खण्डन-मण्डन किया जाता है और यह खण्डन-मण्डन, पक्ष प्रतिपक्ष, युक्ति-प्रतियुक्ति तथा हेतु-तर्क-प्रमाणोंके विना असम्भव है । तब यह सुतरां सिद्ध है कि जैनन्यायका उद्गम स्थान जैन श्रुत ही है अन्य नहीं ।
हमारे इस कथनकी पुष्टि एक अन्य प्रमाणसे भी होती है । जैन न्यायके समुद्धारक महान् जैन तार्किक भट्टाकलङ्कदेवके पहले, उनके उल्लेखानुसार प्रायः कुछ गुण-द्वेषी तार्किकोंने जैनन्यायको छल, जाति, निग्रहस्थानादि कल्पनारूप अज्ञानतमके महात्म्यसे मलिन कर दिया था, इस मैलको उन्होंने किसी प्रकार धोकर उसे निर्मल बनाया था। इससे स्पष्ट है कि जैन न्यायका उद्भव अन्य (ब्राह्मण और बौद्ध ) न्यायोंसे नहीं हुआ, बल्कि उनके द्वारा जैनन्याय मलिन बना दिया गया था और जिस मलिनताको अकलङ्क जैसे महान् जैनन्याय समुद्धारकों अथवा पुनः प्रतिष्ठापकोंने दूर किया है ।
____ यद्यपि छान्दोग्योपनिषद (अ० ७) में एक 'वाको वाक्य' शास्त्र-विद्याका उल्लेख है, जिसका अर्थ तर्कशास्त्र, उत्तर-प्रत्युत्तरशास्त्र, युक्ति प्रतियुक्ति शास्त्र किया जाता है । और इसी तरह
आन्वीक्षिकी नामकी एक विद्याका, जिसे न्याय विद्या अथवा न्यायशास्त्र कहा जाता है, ब्राह्मण साहित्यमें कथन मिलता है तथा तक्षशिलाके विश्वविद्यालयमें दर्शनशास्त्र एवं न्यायशास्त्र अध्ययनअध्यापनके संकेत मिलते बतलाये जाते हैं । तथापि हमारा कहना यह नहीं है कि जैनन्यायके समयमें अन्य न्याय नहीं रहे | हमारा कहना तो इतना ही है कि जैनन्यायका उनसे उद्भव नहीं हुअा-उसका उद्भव अपने 'दृष्टिवाद' श्रुतसे हुआ है। यहाँ हम यह भी उल्लेख कर देना चाहते हैं कि जैनेतर न्यायोंमें बहुत कुछ विशिष्टता एवं उत्तमता (अनेकान्तका समर्थन जैसी वस्तु ) इसी दृष्टिवादसे आई प्रतीत होती है; क्योंकि वह महान् रत्नाकर है-उस विषयका सबसे बड़ा समुद्र अथवा श्राकर है । प्राचार्यसिद्ध सेन, अकलंक और विद्यानन्द भी यही कहते हैं। प्राचार्य प्रवर सिद्धसेन एक जगह तो यह भी कहते हैं
१ "बालानां हितकामिनामतिमहापापैः पुरोपार्जितः, माहात्म्यात्तमसः स्वयं कलिबलात्प्रायो गुणद्वेषिभिः । न्यायोऽयं मलिनीकृतः कथमपि प्रक्षाल्य नेनीयते, सम्य ज्ञानजलैचोभिरमलै तत्रानुकम्पापरैः ।।
--न्यायविनि० श्लो० २। २ देखो, डाक्टर भगवानदासकृत-'दर्शनका प्रयोजन' पृ. १।
३ कः पुनरय न्यायः ? प्रमाणैरर्थपरीक्षण न्यायः । आन्वीक्षिकी-न्यायविद्मा--न्यायशास्त्रम् । न्यायभाष्य (वात्स्यायनकृत) पृ०४ ।
४ देखो, 'प्राचीन भारतके शिक्षाकेन्द्र' शीर्षक निबन्ध (श्रीकृष्णदत्त वाजपेयी लिखित ) विक्रमस्मृतिग्रन्थ पृ० ७१८॥
५ "सुनिश्चितं नः परतन्त्रयुक्तिषु स्फुरन्ति याः काश्चन सूक्तसम्पदः। तवैव ताः पूर्वमहार्णवोत्थिता जगत्प्रमाणं जिन वाक्यविपुषः ।।" द्वात्रिंशत्का १-३०।
६ देखो, तत्वार्थवार्तिक पृ० २९५ । ७ देखो, अष्टसहस्त्री पृ. २३८ । ८ "उदधाविव सर्वसिंधवः समुदीर्णास्त्वयि सर्वदृष्टयः । न च तासु भवानुदीक्ष्यते प्रविभक्तासु सरित्स्विवोदधेः ।।'
-द्वात्रिंशत्का ४-१५ ।