SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 189
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ होगा उसका फल भी हमको अवश्य ही भुगतना पड़ेगा, वह केवल चाटुकारिता या स्तुतिसे टाला न टलेगा जैसा बीज वैसा वृक्ष और जैसी करनी वैसी भरनीके सिद्धान्तपर पूर्ण विश्वास हो जाने पर ही यह मनुष्य बुरे कृत्योंसे बच जाता है और भले कृत्योंकी तरफ झुक सकता है । परन्तु उसके विरुद्ध , जबतक मनुष्यका यह विचार बना रहेगा कि खुशामद करने, स्तुतियां पढ़ने या भेट चढ़ाने, अादिके द्वारा भी मेरे अपराध क्षमा हो सकते हैं तबतक वह बुरे कृत्य करनेसे बच नहीं सकता और न वह शुभ अाचरणोंको तरफ लग सकता है । अतः लोग कारण-कार्य के अटल सिद्धान्तको मानकर वस्तु स्वभावपर पूरा पूरा विश्वास लावें, अपने भले बुरे कृत्योंका फल भुगतनेके वास्ते पूरी तौरसे तैयार रहें और उनका फल टल जाना बिल्कुल ही असम्भव समझें । ऐसा मान लेनेपर ही मनुष्योंको अपने ऊपर पूरा भरोसा होगा वे अपने पैरोंके बल खड़े होकर अपने आचरणोंको ठीक बनाने के लिए कमर बांध सकेंगे और तब ही दुनियांसे ये सब पाप और अन्याय दूर हो सकेंगे । नहीं तो किसी प्रबन्धकर्ता के माननेकी अवस्थामें, अनेक प्रकारके भ्रम हृदयमें उत्पन्न होते रहेंगे और दुनियाके लोग पाप करनेकी तरफ ही झुकेंगे। एक तो यह सोचने लग जायगा कि यदि उस प्रबन्धकर्ताको मुझसे पाप कराना मंजूर न होता तो वह मेरे मनमें पाप करने का विचार ही क्यों आने देता, दूसरा विचारेगा कि यदि वह मुझसे इस प्रकारके पाप नहीं कराना चाहता तो वह मुझे ऐसा बनाता क्यों, जिससे मेरे मनमें इस प्रकारके पाप करनेकी इच्छा पैदा होवे, तीसरा कहेगा कि यदि वह पापोंको न कराना चाहता तो पापोंको पैदा ही क्यों करता, चौथा सोचेगा कुछ ही हो अब तो यह पाप कर लें फिर संसारके प्रबन्धकर्ताको खुशामद करके और नजर भेंट चढ़ाकर क्षमा करा लेंगे, गरज यह कि संसारका प्रबन्धकर्ता माननेको अवस्थामें तो लोगोंको पाप करने के लिए सैकड़ों बहाने बनाने का अवसर मिलता है परन्तु वस्तु स्वभावके द्वारा ही संसारका संपूर्ण कार्य व्यवहार चलता हुआ माननेकी अवस्थामें सिवाय इसके और कोई विचार ही नहीं उठ सकता कि जैसा करेंगे उसका फल भी हम स्वयं वैसा ही अवश्य भुगतें गे । ऐसा माननेपर ही हम बुरे अाचरणोंसे बच सकते है और अच्छे आचरणोंकी तरफ लग सकते हैं । यदि कोई प्रबन्धकर्ता होता तो क्या ऐसा ही अन्धेर रहता जैसा कि अब हो रहा है । अर्थात् किसीको भी इस बातकी खबर नहीं कि हमको इस समय जो कुछ भी सुख दुख मिल रहा है वह हमारे कौनसे कृत्योंका फल है । प्रबन्धकर्ता होनेकी हालतमें हमें वह बात प्रकट रूपसे अवश्य ही बतलायी जाती, जिससे हम भविष्यमें बुरे कृत्योंसे बचते और भले कृत्योंकी तरफ बढ़ते, परन्तु अब यह मालूम होना तो दूर रहा कि हमको कौन कौन दुःख किस किस कृत्यके कारण मिल रहा है, यह भी मालूम नहीं है कि पाप क्या होता है और पुण्य क्या । इसीसे दुनियामें यहां तक अंधेर छाया हुआ है कि एक ही कृत्यको कोई पाप मानता है और कोई पुण्य अथवा धर्म । और यही वजह है कि संसारमें सैकड़ों प्रकारके मत फैले हुए हैं । बड़े तमाशेकी बात तो यह है कि सब ही अपने अपने मतको उसी सर्वशक्तिमान प्रबन्धकर्ताका १०२
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy