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________________ जगतकी रचना और उसका प्रबन्ध है वहां एक बूंद भी नहीं पड़ने पाती । किसी प्रबन्धकर्ताके न होनेके ही कारण तो मनुष्य, कुएं खोदकर और नहर, आदि निकालकर, यह प्रबन्ध कर सका है कि यदि दैव न बरसे तो भी वह अपने खेतोंको पानी देकर सब कुछ अनाज पैदा कर ले । इसके सिवाय जब प्रत्येक धर्म और पथके कथनानुसार संसारमें इस समय पापोंकी ही अधिकता हो रही है और नित्य ही भारी भारी न्याय देखने में आते हैं, तब यह कैसे माना जा सकता है कि जगतका कोई प्रबन्धकर्ता भी अवश्य है, जिसकी श्राज्ञा श्रोंको न माननेके कारण ही ये सब पाप और : अपराध हो रहे हैं । सम्भव है कि यहां पर कोई भाई ऐसा भी कहने लगे कि राजाकी आज्ञा भी तो भंग होती रहती है । उनको यह विचारना चाहिये कि राजा न तो सर्व का ज्ञाता 'सर्वज्ञ' ही होता है और न सर्व शक्तिमान् । इसलिए न तो उसको सर्व प्रकार के अपराधों तथा अपराध करनेवालोंका पता लग सकता है और न वह सर्व प्रकार के अपराधों को दूर ही कर सकता है । परन्तु जो सर्वज्ञ हो, सर्व शक्तिमान हो, संसार भर का प्रबन्ध करनेवाला हो और एक छोटेसे परमाणु से लेकर धरती आकाश तक की गति -स्थिति का कारण हो, उसके सम्बन्ध में यह बात कभी भी नहीं कही जा सकती, कि, वह ऐसा प्रबन्ध नहीं कर सकता, जिससे कोई भी उसकी आज्ञाको भंग न कर सके और सारा कार्य उसकी इच्छानुसार ही होता रहे । एक ओर तो संसारके एक एक करण (अणु) का उसे प्रबन्धकर्ता बताना और दूसरी ओर अपराधों के रोकने में उसे असमर्थ ठहराना, यह तो वास्तव में उस प्रबन्धकका मखौल ही उड़ाना है; बल्कि यों कहना चाहिए कि इस तरह तो असल में उसका न होना ही सिद्ध होता है । ईश्वर कल्पना -- दुःख है मनुष्यों वस्तु स्वभावको न जानकर विना किसी हेतुके ही संसारका एक प्रबन्धकर्त्ता मान लिया है । पृथ्वीपर राजा को मनुष्यों के बीच में प्रबन्ध सम्बन्धी कार्य करता हुआ देखकर सारे संसार के प्रबन्धकर्ताको भी वैसा ही कम शक्तिवाला समझ लिया है और जिस प्रकार राजा लोग खुशामद तथा स्तुति से प्रसन्न होकर खुशामद करनेवालोंके वशमें आ जाते हैं और उनकी इच्छा अनुसार ही उलटे सीधे कार्य करने लग जाते हैं उसी प्रकार दुनियाके लोगोंने संसारके प्रबन्धकर्त्ता को भी खुशामद तथा स्तुति से वश में | जाने वाला मानकर उसकी भी खुशामद करनी शुरू कर दी है और वे अपने चरणको सुधारना छोड़ बैठे हैं । यही कारण है कि संसार में ऐसे ऐसे महान् पाप फैल रहे हैं जो किसी प्रकार भी दूर होने में नहीं आते । जब संसारके मनुष्य इस कच्चे ख्यालको हृदयसे दूर करके वस्तु स्वभावके अटल सिद्धान्तको मानने लग जावेंगे तब ही उनके दिलोंमें यह विचार जड़ पकड़ सकता है कि जिस प्रकार आँखोंमें मिरिच झोंक देनेसे या घावपर नमक छोड़ देनेसे दर्दका हो जाना अनिवार्य है और वह कष्ट किसी प्रकार की खुशामद या स्तुति के करनेसे दूर नहीं हो सकता, उस ही प्रकार जैसा हमारा श्राचरण १०१
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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