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________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ उसीप्रकार पांच महाभूत और उनकी कारणभूत पांच तन्मात्राओंकी सृष्टि भी प्राणियोंसे पृथक् रूपमें होना संभव नहीं हो सकता है। ये आपत्तियां हमें इस निष्कर्षपर पहुंचा देती हैं कि सांख्यके पच्चीस तत्त्वोंमें गर्भित पांच स्थूल भूतोंसे पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन पांच तत्त्वोंका अभिप्राय स्वीकार करना अव्यवस्थित और अयुक्त ही है इसलिए यदि श्रीमद्भगवद्गीताके अाधारपर श्रीकृष्ण द्वारा स्वीकृत प्राणियोंके अपने अपने शरीरको ही क्षेत्र और प्रकृति से लेकर पंचभूत पर्यन्तके तत्वोंको इस शरीररूप क्षेत्रका ही विस्तार स्वीकार कर लिया जाय तो जिस प्रकार इतर वैदिक दर्शनोंमें शरीरको पंचभूतात्मक मान लिया गया है उसी प्रकार सांख्य दर्शनके सृष्टि क्रममें भी पांच स्थूल भूतोंसे तदात्मक शरीरका ही उल्लेख समझना चाहिये और ऐसा मान लेने पर पूर्वोक्त दोनों अापत्तियोंकी भी संभावना नहीं रह जाती है । सांख्य और जैन तत्त्वोंका सामञ्जस्य जैनदर्शन और सांख्यदर्शन दोनोंमें से कौनसा दर्शन प्राचीन है और कौनसा अर्वाचीन है इसकी विवेचना न करते हुए हम इतना निश्चित तौरपर कहनेके लिए तैयार हैं कि इन दोनोंके मूलमें एक ही धाराकी छाप लगी हुई है । प्राणियोंका संसार कहांसे बनता है ? इस विषयमें जैन और सांख्य दोनों दर्शनोंकी मान्यता समान है। इस विषयमें दोनों ही दर्शन दो अनादि मूल तत्त्व स्वीकार करके आगे बढ़े हैं । उन दोनों तत्त्वोंको सांख्य दर्शन में जहां पुरुष और प्रकृति कहा जाता है वहां जैनदर्शनमें पुरुषको जीव (आत्मा) और प्रकृतिको अजोव ( कार्मण वर्गणा ) कहा गया है और सांख्यदर्शनमें पुरुषको तथा जैनदर्शनमें जीव (आत्मा) को समान रूपसे चित् शक्ति विशिष्ट, इसोप्रकार सांख्य दर्शनमें प्रकृतिको तथा जैनदर्शन में अजीव ( कार्माण वर्गणा) को समान रूपसे जड़ (अचित् ) स्वीकार किया गया है। दोनों दर्शनोंकी यह मान्यता है कि उक्त दोनों तत्त्वोंके संयोगसे संसारका सृजन होता है, परन्तु सांख्य दर्शनकी मान्यताके अनुसार संसारके सृजनका अर्थ जहां जगत् के समस्त पदार्थों की सृष्टि ले लिया जाता है वहां जैन मान्यताके अनुसार संसारके सृजनका अर्थ सिर्फ प्राणीका संसार अर्थात् प्राणीके शरीरकी सृष्टि लिया गया है । यदि हम जैनदर्शनकी तरह सांख्य दर्शनकी दृष्टि से भी पूर्वोक्त आपत्तियोंके भयसे संसारके सृजनका अर्थ प्राणोके शरीरकी सृष्टिको लक्ष्यमें रखते हुए आगे बढ़ें, तो कहा जासकता है कि इसके मूल में जैन और सांख्य दोनों दर्शनोंकी अपेक्षासे सबसे पहिले बुद्धिको ही महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त होता है अर्थात् बुद्धि ही एक ऐसी वस्तु है जिसके सहारेसे प्राणी जगत्के चेतन और अचेतन पदार्थों में राग, द्वेष और मोह किया करता है सांख्य दर्शनके पच्चीस तत्त्वोंके अन्तर्गत अहंकार तत्त्वसे राग, द्वेष और मोह इन तीनोंका ही बोध करना चाहिये। राग, द्वेष और मोह रूप यह अहंकार ही प्राणीको शरीर परंपराके बंधनमें जकड़ देता है।
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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