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________________ जैन दर्शनका उपयोगिता वाद इतनी समानता रहते हुए भी बुद्धि और अहंकार इन दोनों तत्त्वोंकी उत्पत्तिके विषय में सांख्य दर्शन और जैन दर्शनकी विल्कुल अलग अलग मान्यताएं हैं- सांख्य दर्शनकी मान्यता यह है कि प्रकृति ही पुरुष के साथ संयुक्त हो जाने पर बुद्धि रूप परिणत हो जाया करती है और यह बुद्धि अहंकार रूप हो जाती है । परन्तु जैन दर्शनकी मान्यता यह है कि प्रकृति श्रर्थात् कार्माण वर्गणा के संयोगसे पुरुष अर्थात् श्रात्माकी चित् शक्ति ही बुद्धिरूप परिणत हो जाया करती है और इस बुद्धि के सहारे जगत्के चेतन और अचेतन पदार्थों के संसर्गसे वही चित् शक्ति राग, द्वेष और मोह स्वरूप अहंकारका रूप धारण कर लेती है । तात्पर्य यह हैं कि सांख्यदर्शन में बुद्धि और अहंकार दोनों जहां प्रकृतिके विकार स्वीकार किये गये हैं वहां जैन दर्शन में ये दोनों ही श्रात्माकी चित् शक्तिके विकार स्वीकार किये गये हैं । सांख्य दर्शनकी मान्यता के अनुसार यह अहंकार पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां, मन तथा पांच तन्मात्राएं इस प्रकार सोलह तत्त्वोंके रूपमें परिणत हो जाया करता हैं और जैन दर्शनकी मान्यता के अनुसार श्रात्मा इसी प्रकार के सहारे एक तो शरीर रचनाके योग्य सामग्री प्राप्त करता है दूसरे उसके ( आत्माके) चित् स्वरूपमें भी कुछ निश्चित विशेषताएं पैदा हो जाया करती हैं। इसका मतलब यह है कि आत्मा जगत्के पदार्थों में अहंकार अर्थात् राग, द्वेष और मोह करता हुआ शरीर निर्माणके पहिले पुद्गल परमाणुत्रों के पुञ्जरूप शरीर निर्माणकी सामग्री प्राप्त करता है इस सामग्रीको जैन दर्शन में 'नोकर्मवर्गणा' नाम दिया गया है । शरीर निर्माणकी कारणभूत नोकर्म वर्गणारूप यह सामग्री सांख्य दर्शनकी पांच तन्मात्राओं की तरह पांच भागों में बिभक्त हो जाती है क्योंकि जिस प्रकार वैदिक दर्शनोंमें शरीरको पांच भूतो में विभक्त कर दिया गया है उसी प्रकार जैन दर्शन में भी शरीरके पांच हिस्से मान लिये गये हैं । शरीरका एक हिस्सा वह है जो प्राणीको स्पर्शका ज्ञान कराने में सहायता करता है, दूसरा हिस्सा वह है जो उसे रसका ज्ञान कराने में सहायता करता है, तीसरा हिस्सा वह है जो उसे गंधका ज्ञान कराने में सहायता करता है, चौथा हिस्सा वह है जो उसे रूपका ज्ञान कराने में सहायता करता है और पांचवां हिस्सा वह है जो उसे शब्दका ज्ञान कराने में सहायता करता है। जैन दर्शनमें शरीरके इन पांचों हिस्सोको क्रमसे स्पर्शन द्रव्येन्द्रिय, रसना द्रव्येन्द्रिय, घ्राण द्रव्येन्द्रिय, चक्षु द्रव्येन्द्रिय और कर्ण द्रव्येन्द्रिय इन नामोंसे पुकारा जाता है और शरीर के इन पांचों हिस्सों की सामग्री स्वरूप जो नोकर्म वर्गरणा है उसको भी पांच भागों में निम्न प्रकार से विभक्त किया जा सकता है । पहिली नोकर्म वर्गणा वह है जिससे प्राणीको स्पर्शका ज्ञान करनेमें सहायक स्पर्शन द्रव्येन्द्रियका निर्माण होता है इसको स्पर्शन-द्रव्येन्द्रिय नोकर्मवर्गणा अथवा स्पर्श नोकर्मवर्गणा नामसे पुकारा जा सकता है, दूसरी नोकर्मवर्गणा वह है जिससे प्राणीको रसका ज्ञान करनेमें सहायक रसना द्रव्येन्द्रियका निर्माण होता है इसको रसना द्रव्येन्द्रिय नोकर्म वर्गणा अथवा रसना नोकर्म वर्गणा नामसे पुकारा जा सकता है, तीसरी नोकर्म वर्गणा वह है जिससे प्राणीको गन्धका ज्ञान करनेमें सहायक प्राण द्रव्येन्द्रियका निर्माण होता है इसको प्राण द्रव्येन्द्रिय नोकर्म वर्गणा अथवा गन्ध नोकर्मवर्गणा नामसे ३१
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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