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________________ धर्मप्रचार और समाजसेवा-विज्ञान श्री अजितप्रसाद, एम० ए०, एल०एल० बी० श्री स्वामी समन्तभद्राचार्यने रत्नकरण्डश्रावकाचारमें धर्म की व्याख्या करते हुए कहा है कि "संसार दुःखतः सत्त्वान् यो घरत्युत्तमे सुखे", संसारके दुःखोंसे बचाकर प्राणीमात्र को उत्तम सुखमें जो पहुंचा दे सो धर्म है। सुख का लक्षण दुःख का अभाव है, और दुःख उत्पन्न होता है चाह से, इच्छित वस्तुके न होने से । जहां चाह है, वहां दुःख है । चाह का मिटजाना ही सुख है । 'सरापा आरजूने होने वंदा कर दिया हमको । वगर न हम खुदा थे गर दिल-ए-वेमुद्दा होता।' इस सुखक रूपरेखा भोगभूमि के वर्णनसे कुछ समझमें आ सकती है, जहां मनुष्य अपनी इच्छा पूर्ति के लिए किसी दूसरे के प्राधीन नहीं था, उसकी सब जरूरतें कल्पवृक्षोंसे पूरी हो जाती थीं। पति-पत्नी एक साथ ही उत्पन्न होते; शीघ्र ही पूर्ण यौवनको पा लेते । लम्बी मुद्दत तक जीते रहते थे। एक साथ ही छींक या जंभाई लेकर मर जाते थे । न बीमारी का कष्ट न बुढ़ापे का दुःख, न रिश्तेदारोंसे जुदाई का गम, न मरने का भय, न रोटी कपड़े का फिकर, न धन दौलत जमा करने का बखेड़ा। श्राराम ही आराम, सुख ही सुख था । किन्तु वह सुख चन्द रोजा ही था और सर्वथा निराबाध भी न था। श्री पं० जुगलकिशोरने सिद्धिसोपान काव्यमें दर्शाया है कि उत्तम सुख बाधा रहित, विशाल, उत्कृष्ट, अंतिम, शाश्वत, सहजानन्द अवस्था है। वहां दःख का लेश भी नहीं है, वह कृत-कृत्य पद प्राप्ति है। वहां किसी प्रकार की चाह या वांछा नहीं रह गयी है। सिद्ध परमात्मा न भक्तों की सहाय करने आते हैं न दुष्टों का संहार । वह अतीन्द्रिय, शाश्वत, निजानन्द रसास्वादनमें लीन है। उस अक्षय सुख-अनन्त सुख का अनुमान या परिमाण कोई कर ही नहीं सकता । ऐसा उत्तम सुख शुद्ध आत्मा का निज स्वभाव है। परन्तु देहधारी संसारी श्रात्मा अनादिकालसे अशुद्ध अवस्था में है। स्वभावसे वंचित, विभावमें रत, सतत रागद्वष, काम क्रोधादि कषाय विषय वासनाके कारण अशुद्ध दशामें रहता है; यद्यपि उस अशुद्धता की मात्रा घटती बढ़ती रहती है, परन्तु वह बिल्कुल मिट नहीं जाती । अशुद्धता का नाम जैन सिद्धान्तमें कर्म है । लोकमें मुख्यतया दो द्रव्य हैं; एक जीव, दुसरा अजीव । इन दोनों का मेल ही संसार का खेल ५१०
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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