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________________ महाकवि रइधू विक्रमकी १५ वीं शतीके उत्तरप्रान्त वासी जैनियोंके तात्कालिक जीवन पर अच्छा प्रकाश डाला जा सकता है । उनमें से बतौर उदाहरणके यहां कुछ घटनाओंका उल्लेख किया जाता है । (१) हरिवंशपुराणकी आद्य प्रशस्तिमें उल्लिखित भट्टारक कमलकीर्तिके पट्टका 'कनकाद्रि' 'सुवर्णगिरि' या वर्तमान सोनागिरमें प्रस्थापित होना और उसपर भट्टारक शुभचन्द्रके पदारूढ़ होनेका ऐतिहासिक उल्लेख बड़े महत्त्वका है । उससे यह स्पष्ट मालूम होता है कि ग्वालियर भट्टारकीय गद्दीका एक पट्ट सोनागिर में भी स्थापित हुआ था, जैसा कि हरिवंशपुराणकी प्रशस्तिकी निम्न पंक्तियों से प्रकट है- “कमलकित्ति उत्तमखम धारउ, भव्यहिं भव-अबोणिहि तारउ। तस्स पट्ट कणयहि परिट्ठिउ, सिरि सुहचन्द सु-तव उक्कंठिउ ।" ( २ ) कविके 'सम्मइजिनचरिउ' को प्रशस्तिमें जैनियोंके आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभ भगवानकी एक विशाल मूर्तिके निर्माण करानेका उल्लेख निम्न प्रकारसे दिया हुआ है और उसमें बतलाया है कि अग्रवाल कुलावतंश संसार-शरीर भोगोंसे उदासीन, धर्मध्यानसे संतृप्त, शस्त्रोंके अर्थ रूपी रत्न समूहसे भूषित, तथा एकादश प्रतिमाओंके संपालक, खेल्हा नामके ब्रह्मचारी उस श्रावकने मुनि यशःकीर्तिकी वन्दना की, और कहा कि आपके प्रसादसे मैंने संसार दुःखका अन्त करनेवाले चन्द्रप्रभ भगवान की एक विशाल मूर्तिका निर्माण ग्वालियरमें कराया है, इस आशयको व्यक्त करनेवाली मूल पंक्तियां इस प्रकार हैं "ता तम्मि खणि बंभवय-भार भारेण सिरि अयखालंक वंसम्मि सारेण । संसार-तणु-भोय-णिविण चित्तेण वर धम्म झाणामएणेव तित्तण । खेल्हाहिहाणेण णमिऊण गुरुतेण जसकित्ति विणयत्तु मंडिय गुणोहेण । भो भयण दावग्गि उल्हवण णणदाण संसार-जलरासि-उत्तार-वर जाण । तुम्हहं पसाएण भव-दुह-कयंतस्स, ससिपह जिणेदस्स पडिमा विसुद्धस्स । काराविया मइंजि गोवायले तुगं, उडुचावि णामेण तित्थम्मि सुह संग।" पुण्याश्रवकथाकोशकी अन्तिम प्रशस्तिमें बतलाया है कि जोइणिपुर (योगिनीपुर-दिल्ली) के निवासी साहू तोसउ के प्रथम पुत्र नेमिदासेन, जिसे चन्द्रवाडके प्रतापरूद्र नामके राजाने सन्मानित किया था बहुत प्रकारकी धातु, स्फटिक और विद्रुममयी ( मूंगाकी ) अगणित प्रतिमाए बनवायी थीं, और उनकी प्रतिष्ठा भी करायी थी, तथा चन्द्रप्रभ भगवानका उत्तुंग शिखरोंवाला एक चैत्यालय भी बनवाया था । (४) सम्मत्तगुणनिधान नामके ग्रन्थकी प्रथमसंधिके १७ वें कडवकसे स्पष्ट है कि साहू खेमसिंहके पुत्र कमलसिंहने भगवान आदिनाथकी एक विशाल मूर्तिका निर्माण कराया था, जो ग्यारह हाथ ऊंची थी, और दुर्गतिकी विनाशक, और मिथ्यात्व रूपी गिरीन्द्रकेलिए वज्रसमान, भव्यों ४१३
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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