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अहिंसा की पूर्व परम्परा इससे गौतमको मनुष्योंकी पारस्परिक हिंसा वृत्तिसे कितनी घृणा थी, यह स्पष्ट होता है। इसो कारण गृह त्याग करके उसने मनुष्य जातिके कल्याणका नया मार्ग खोज निकाला। जंगल में रहकर पानी की बूदमें रहनेवाले जन्तुपर भी दया दिखाना, पर इधर मनुष्य मनुष्यके बीचमें जब घोर संग्राम मचा हुआ हो तो भी उससे उदासीन रहना, इसप्रकारका अहिंसा धर्म बुद्धको पसन्द न था। मानवताको प्राधान्य देने के कारण बौद्ध धर्मका जैनधर्मसे अधिक फैलाव हुश्रा । परन्तु भिक्षाटन करना, जमीन खोदने, वगैरहके कामको निषिद्ध समझना और राज्य संस्थाके विषयमें उदासीन रहना, आदि कुछ दोष (१) बौद्धधर्ममें भी रह गये । राजाको कैसे वर्तना चाहिये, इस सम्बन्धमें कुछ सूत्र त्रिपिटकमें हैं। पर राजा यदि दुष्ट हुआ तो प्रजाको क्या करना चाहिये, इस विषयमें कोई विधान नहीं मिलता। वज्जियोंके गण-सत्ताक राज्यकी अभिवृद्धि के लिए बुद्ध के सात नियम बना देनेका उल्लेख महापरिनिब्बान-सुत्तके प्रारम्भमें ही
है । पर प्लैटोके रिपब्लिक जैसे गण-सत्ताक राज्यकी स्थापना और विकास कैसे किया जाता है और उसमें बहुजन समाजका हित कैसे साधा जा सकता है, इसका विचार बौद्ध ग्रन्थों में विस्तार पूर्वक नहीं मिलता। ईसाई अहिंसा तथा समाजवाद
बुद्ध के पश्चात् छठी सदीमें प्रख्यात् अहिंसावादी ईसा हुआ | परमेश्वरका सौम्य रूप बताकर उसने मानवजातिमें अहिंसाके प्रचारका यत्न किया। जैन और बौद्ध भिक्षुओंको जमीन खोदने जैसे कामोंकी मनाही है, वैसी ईसाई साधुओंको नहीं है; परन्तु उन्हें शरीर निर्वाहके लिए शारीरिक परिश्रम करना ही चाहिये, ऐसा कोई नियम भी नहीं है । दूसरा यह कि राजकीय सत्तामें सुधार करनेका भी उन्होंने यत्न नहीं किया। सीजरको कर देना चाहिये या नहीं, यह प्रश्न पूछे जानेपर ईसाने उत्तर दिया- 'जो वस्तु सोजरको हो सो सीजरको दो, और जो वस्तु प्रभुकी हो सो प्रभुको दो' । इसका परिणाम यह हुआ कि ईसाई साधु राज्यसत्तानुवर्ती बन गये और कुछ दिनके बाद पोपने भी राज्य सत्ता लूट लो। किन्तु राज्य संस्थाको अहिंसात्मक बनानेका प्रयत्न ईसाके अनुयाइयोंने कभी नहीं किया।
व्यापार-युग का पश्चिममें उदय होते ही श्रमी जनोंकी तो जैसे मृत्यु भा गयो। उनके दु:खोंका परिमार्जन करनेका जिन सत्पुरुषोंने प्रयत्न किया, वे समाजवादी कहलाये। उनमें और बौद्ध भिक्षुत्रों, ईसाई पादरियोंमें कोई विशेष अन्तर नहीं रह गया तथा बौद्ध भिक्षु तथा ईसाई पादरी जहां मठ बांध कर रहा करते थे और शान्ति मार्गका उपदेश श्रावकोंको देते थे, वहां शारीरिक परिश्रम नहीं करते थे । इतना ही नहीं, बादमें ये भिक्षु और पादरी राजारोंसे इनाम, जागीरें पाकर जमीदार बन गये। इस कारण साधारण जनता तिरस्कार करने लगी।
रावर्ट प्रोबेन प्रभृति सोशलिस्टोंका वतीव इनके खिलाफ था । गरीबोंके दुःख दूर करनेके लिए उन्होंने यह मार्ग स्वीकार किया। अमरीकामें जहां जमीन बहुत थी, उन्होंने जाकर एक बड़ी बस्ती
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