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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ
वैदिक युगके बादकी ऐसी संस्कृति है जिसमें तांत्रिक प्रक्रियाएं पर्याप्त मात्रामें घुल मिल गयी थीं। प्राचीन साहित्य जैन तीर्थंकरों तथा बुद्धोंकों असदिग्ध रूपसे क्षत्रिय तथा आर्य कहता है फलतः जैनधर्म तथा बौद्ध धर्मकी प्रसूतिको अनार्यों में बताना सर्वथा असंभव है। जैनधर्मका आदि-देश प्राचीन भरतखण्ड--
अतएव जैन धर्मके मूल स्रोतको आर्य संस्कृतिकी किसी प्राचीनतर अवस्थामें खोजना चाहिये, जैसाकि बौद्ध धर्मके लिए किया जाता है। अपने पूर्वोल्लिखित निबन्धमें मैं सिद्ध कर चुका हूं कि समस्त भारतीय साधन सामग्री यही सिद्ध करती है कि जम्बूद्वीपका भरतखण्ड ही आर्योंका आदि-देश था। हमारी पौराणिक मान्यताका भारतवर्ष आधुनिक भौगोलिक सीमाअोंसे बद्ध न था अपितु उसके आयाम वित्तारमें पामीर पर्वत माला तथा हिन्दूकुश भी सम्मिलित था, अर्थात् १० अक्षांश तक विस्तृत था । प्राचीनतम जैन तथा वैदिक मतोंके ज्योतिष-ग्रन्थों और पुराणोंमें भारतके उक्त विस्तारका स्पष्ट रूपसे प्रतिपादन किया गया है। जैनधर्मके ज्योतिष ग्रन्थ 'सूर्यप्रज्ञप्ति', 'काल लोकप्रकाश', 'चन्द्रप्रज्ञप्ति' आदिमें दिया गया पञ्चाङ्ग बहुत कुछ उस पञ्जिकाके समान है जो वेदाङ्ग ज्योतिष' (ल० ९३८० ईसा पूर्व) में पाया जाता है। जैन मान्यताके दो सूर्य. दो चन्द्र, तथा सत्ताईस नक्षत्रोंको दो मालात्रोंको वैदिक साहित्यको दृष्टिमें रखते हुए ही उचित रूपमें समझ सकते हैं । सूर्यप्रज्ञप्तिके उन्नीसवे प्राभूतमें विविध मत' दिये गये हैं।
ज्योतिष ग्रन्थोंका आधार- १, ३, ७, ७६, १२, १४ से लेकर १००० पर्यन्त सूर्यों की संख्याके विषयमें विविध उद्धरण वैदिक साहित्यमें भी प्रचुरतासे पाये जाते हैं । वर्ष, ग्रहण, अयन, आदिके चक्रोंके समान सूर्योकी उक्त संख्याओं को भी सन्दर्भके अनुसार समय ( व्यवहार काल ) के प्रमाण रूपमें जानना चाहिये, शब्दार्थ रूपमें नहीं । प्रकृत निबन्धमें हम ज्योतिष शास्त्र सम्बन्धी समस्त मान्यताओंकी व्याख्या करनेका प्रयत्न नहीं करेंगे। यहां हमारा इतना ही उद्देश्य है कि उन असंदिग्ध वर्णनों पर विचार करें जो इस तथ्य को प्रकाशमें लाते हों कि जैन तथा वैदिक ग्रन्थोंके अाधारसे ज्योतिषके वे निष्कर्ष संभवतः किस स्थानपरं निकाले गये हों गे । स्व० डाक्टर र० शामशास्त्री द्वारा काल-लोक प्रकाशके आधार पर बतायी गयी
१-"ता कति न चन्दिमसूरिया, संबलोय ओभासति, उज्जोवन्ति, तवेंति, बभासेंति य हि तेत्ति वदेजा ? तत्थ खलु
इमाओ दुवालस पडिवित्तिओ पण्णत्ताओ। तत्थेमे एवमहसु । त एके चन्दे, एगे सूरे, सबलो ओभासति उज्जोएति, तवेत्ति पभासेत्ति। एगे एवं आहसु । एगे पुण एवमहांसु ता तिष्ण चन्दा तिष्ण सूरा सव्वलोयं
ओभासति । एगे एवमहसु ता आउठ चन्दा ता आउट्ट सूर। सबलो ओभासंति, उज्जोवेति. तवे न्ति, पगासति एगे एवमाहसु एतेन अभिलावेण नेतव्यम् । सत्त चन्दा, सत्त सूरा, दस चन्दा, दस सूरा बारस चन्दा, बारस सूरा..." (सूर्यप्रज्ञप्ति १९ प्राभृत पृ० २७१) २--द्रप्र पृ० ११५।
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