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काव्यप्रकाश-संकेतका रचनाकाल प्रा० भोगीलाल जयन्तभाई सांडेसरा, एम० ए०
आचार्य माणिक्यचन्द्रकृत काव्यप्रकाश-संकेत, मम्मटके काव्यप्रकाशपर लिखित सबसे प्राचीन और प्रमाणभूत टीकाओंमें से है। भारतीय अलंकारशास्त्रके और विशेषकरके काव्यप्रकाशके पाठकोंमें यह टीका अतीव प्रामाणिक मानी जाती है । टीकाकारका विवेचनात्मक वर्णन भी अत्यन्त आदरणीय है । आवश्यक स्थलपर संक्षेप और अनावश्यक स्थलपर व्यर्थ विस्तार, टीकाकारके इन सर्वसाधारण दोषोंसे माणिक्यचन्द्र संपूर्णतया परे हैं। भामह, उद्भट, रुद्रट, दण्डी, वामन, अभिनवगुप्त, भोज, इत्यादि अलंकारशास्त्र प्रणेताओंके मत, स्थान स्थानपर उद्धृत करके उन्होंने अपना मौलिक अभिप्राय व्यक्त किया है। मूल ग्रन्थको विशद बनानेके लिए उन्होंने कितने ही स्थलोंपर स्वरचित काव्योंसे उदाहरण उद्धृत किये हैं। इससे यह भी ज्ञात होता है कि वे एक सहृदय कवि थे। स्वयं जैनमुनि होनेपर भी, उनका ब्राह्मण-साहित्यका गहरा अध्ययन था । यह टीका असाधारण बुद्धि-वैभव, प्रकाण्ड-पाण्डित्य और मार्मिकरसज्ञतासे ओत प्रोत होनेके कारण उन्होंने इसको नवम् उल्लासके आरम्भमें "लोकोत्तरोऽयं सङ्केतः कोऽपि कोविदसत्तमाः।" कहा है । जो कि वृथा गर्वोक्ति नहीं कही जा सकती।
आचार्य माणिक्यचन्द्र जैनश्वेताम्बर सम्प्रदायके अन्तर्गत राजगच्छके सागरचन्द्रसूरिके शिष्य थे । वे विक्रमकी तेरहवीं शतीमें गुजरातमें हुए हैं। यह वही समय था जब विपुल साहित्यकी रचना गुजरातमें हुई थी, और संस्कृत साहित्यका मध्यान्ह काल था। उस समय मंत्री वस्तुपाल विद्याव्यासंगियोंका अप्रतिम आश्रयदाता था। और उसके आसपास एक विस्तृत विद्वन्मण्डल एकत्रित रहता था ।
१. 'नलायन' काव्यकार माणिक्यसूरि पटगच्छके होनेसे प्रस्तुत माणिक्यचन्द्रसे अन्य हैं। पी० वी० कानेकृत
साहित्यदर्पणकी भूमिका ( सी०६) २, वस्तुपाल और उसकी विद्वन्मंडलीकी साहित्य प्रवृत्तिके सम्बन्धमें विशेष जाननेके लिए, -गुजरात साहित्य
सभा, द्वारा सम्पादित, इतिहास सम्मेलन (अहमदाबाद, दिसम्बर १९४४)में लेखकका निबन्ध 'वस्तुपालका विद्यामण्डल"
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