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________________ तिलोयपण्णत्ती और यतिवृषभ हैं । यही ( शक संवत ३९५ ) कल्किकी मृत्युका समय है । और इसलिए तिलोयपण्णत्तीका रचनाकाल शक सं० ४०५ (वि० सं० ५४० ) के करीब का जान पड़ता हैं जब कि लोकविभागको बने हुए २५ बर्ष के करीब हो चुके थे, और यह अन्तराल लोकविभागकी प्रसिद्धि तथा यतिवृत्रभतक उसकी पहुंच के लिए पर्याप्त है । यतिवृषभ और कुन्दकुन्द के समय-सम्बन्धी प्रथम मतकी आलोचना 1 यतः यतिवृषभ कुन्दकुन्दाचार्य से २०० वर्ष से भी अधिक समय बाद हुए हैं, अतः मैंने श्री कुन्दकुन्द और यतिवृषभ में पूर्ववर्ती कौन ?' नामक लेख लिखकर इन्द्रनन्दि- श्रुतावतारके कुछ गलत तथा भ्रान्त उल्लेखोंसे प्रसूत और विबुध श्रीधर - श्रुतावतारके उससे भी अधिक गलत एवं आपत्तिके योग्य उल्लेखों द्वारा पुष्ट विद्वानोंकी गलत धारणाओंका विचार किया था । तथा उन प्रधान युक्तियों का विवेचन किया था जिनके आधारपर कुन्दकुन्दको यतिवृषभ के बादका विद्वान् बतलाया गया है उनमें से एक युक्तिका तो इन्द्रनन्दि- श्रुतावतार ही श्राधार है; दूसरी प्रवचनसारकी 'एस सुरासर' नामकी श्राद्यमंगल गाथासे सम्बन्धित है, जो तिलोयपण्णत्तीके अन्तिम अधिकारमें भी पायी जाती है और जिसे तिलोयपण्णत्ती से ही प्रवचनसार में ली गयी समझ लिया गया था और तीसरी कुन्दकुन्दके नियमासार की गाथा से सन्बन्ध रखती है, जिसमें प्रयुक्त 'लोयविभागेसु' पद से सर्वनन्दीके 'लोकविभाग' ग्रन्थको समझा गया है । यतः उसकी रचना शक सं० ३८० में हुई है अतः कुन्दकुन्दाचार्यको शक सं० ३८० (वि० सं० ५१५ ) के बादका विद्वान ठहराया गया है। 'एस सुरासुर' नामकी गाथाको कुन्दकुन्दकी सिद्ध करनेके लिए मैंने जो युक्तियां दी थी उनसे दूसरी युक्ति के सम्बन्ध में तो धारणा बदल गयी है । फलतः उक्त गाथाकी स्थितिको प्रवचनसार में सुदृढ़ स्वीकार किया गया है, क्योंकि उसके अभाव में प्रवचनसारकी दूसरी गाथा 'सेसे पुण तित्थयरे' को लटकती हुई माना गया है । और तिलोयपण्णत्तीके अन्तिम अधिकारके अन्त में पायी जाने वाली कुन्थनाथ से वर्द्धमानतक स्तुति-विषयक आठ गाथाओं के सम्बन्ध में जिनमें उक्त गाथा भी है, लिखा वीरनिर्वाण और शकसंवत् की विशेष जानकारीके लिए, लेखककी 'भगवान महावीर और उनका समय' नामकी पुस्तक देखनी चाहिये । १ अनेकान्त वर्ष २ (नवम्बर सन् १९३८) किरण सं० १ । २ ' चउदसभेदा भणिदा तेरिच्छा सुरगणा चउभेदा । एदेसिं वित्थारं लोयविभागेसु णादव्वं ॥ १७ ॥ ३ गाथा-चूर्युच्चारणस्त्रैरुपसंहृतं कषायाख्य -- प्राभृतमेवं गुणधर - यतिवृष मोच्चारणाचार्यैः ।। १५९ ।। एवं दिविधो द्रव्य-भावपुस्तकगतः समागच्छन् । गुरुपारपाठ्या ज्ञातः सिद्धान्तः कोण्डकुन्दपुरे ।। १६० ।। श्रीपद्मनन्दि-मुनिना, सोऽपिं द्वादशसहस्रपरिमाणः । ग्रन्य- परिकर्म-कर्ता षट्खण्ड (SSयत्रिखण्डस्य || १६१ ।। ३३१
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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