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________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ को अधूरा छोड़ गये और उसके उत्तरार्धको जिनसेनने पूरा किया तो ये प्रशस्तिमें स्पष्ट शब्दों द्वारा यह सूचित करते हैं कि 'गुरुने आगेके अर्धभागका जो भूरि वक्तव्य उन पर प्रकट किया था (अथवा नोट्स अादिके रूपमें उन्हें दिया था) उसीके अनुसार यह अल्प वक्तव्य रूप उत्तरार्ध पूरा किया गया है । परन्तु वर्तमान तिलोयपण्णत्तीमें तो वीरसेनका कहीं नामोल्लेख भी नहीं है-ग्रंथके मंगलाचरण तकमें भी उनका स्मरण नहीं किया गया । यदि वीरसेनके संकेत अथवा आदेशादिके अनुसार जिनसेनके द्वारा वर्तमान तिलोयपण्णत्तीका संकलनादि कार्य हुश्रा होता तो वे ग्रन्थके आदि या अन्तमें किसी न किसी रूपसे उसकी सूचना जरूर करते तथा अपने गुरुका नाम भी उसमें जरूर प्रकट करते । यदि कोई दूसरी तिलोयपण्णत्ती उनकी तिलोयपण्यत्तीका अाधार होती तो वे अपनी पद्धति और परिणतिके अनुसार उसका और उसके रचयिताका स्मरण भी ग्रन्थके आदिमें उसी तरह करते जिस तरह कि महापुराणके आदिमें 'कवि परमेश्वर' और उनके 'वागर्थसंग्रह' पुराणका किया है, जो कि उनके महापुराणका मूलाधार रहा है। परन्तु वर्तमान तिलोयपण्णत्तीमें ऐसा कुछ भी नहीं है, इसलिए उसे उक्त जिनसेनकी कृति बतलाना और उन्हींके द्वारा उक्त गद्यांशका उद्धृत किया जाना प्रतिपादित करना किसी तरह भी युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता। वर्तमान तिलोयपण्णत्तीका कर्ता बतलाये जाने वाले दूसरे भी किसी विद्वान प्राचार्य के साथ उक्त भूल भरे गद्यांशके उद्धरणको बात संगत नहीं बैठती; क्योंकि तिलोयपण्णत्तीकी मौलिक रचना इतनी प्रौढ़ और सुव्यवस्थित है कि उसमें मूलकार-द्वारा ऐसे सदोष उद्धरणकी कल्पना नहीं की जा सकती । 'इसलिए उक्त गद्यांश बादको किसीके द्वारा धवला आदिसे प्रक्षिप्त किया हुआ जान पड़ता है। और भी कुछ गद्यांश ऐसे हो सकते हैं जो धवलासे प्रक्षिप्त किये गये हों' परन्तु जिन गद्यांशोंकी तरफ फुटनोटमें संकेत किया है वे तिलोयपण्ण तीमें धवलापरसे उद्धृत किये गये मालूम नहीं होते; बल्कि धवलामें तिलोयपण्णत्तीसे उद्धृत जान पड़ते हैं। क्योंकि तिलोयपण्णत्तीमें गद्यांशोंके पहले जो एक प्रतिज्ञात्मक गाथा पायी जाती है वह इस प्रकार है वादवरुद्धक्खेत्ते विदफलं तह य अट्ठ पुढवीए । __ सुद्धायासखिदीणं लवमेत्त वत्तइस्सामो ॥ २८२ ॥ इसमें वातवलयोंसे अवरुद्ध क्षेत्रों, आठ पृथ्वियों और शुद्ध श्राकाश भूमियोंका घनफल बतलानेकी प्रतिज्ञा की गयी है और उस घनफलको 'लवमेत्त' ( लवमात्र )२ विशेषणके द्वारा बहुत १ गुरुणार्धेऽग्रिमे भूरिवक्तव्ये संप्रकाशिते। तान्निरीक्ष्याऽल्पवक्तव्यः पश्चार्धस्तेन पूरितः ||३६।। २ तिलोयपण्यत्तिकारको जहां विस्तारसे कथन करनेको इच्छा अथवा आवश्यकता हुई है वहां उन्होंने वैसी सूचना कर दी है; जैसा कि प्रथम अधिकार में लोकके आकारादि संक्षेपसे वर्णन करनेके अनन्तर 'वित्थररुइ वोहत्थं वोच्छंगाणावियप्ये वि' (७४) इस वाक्यके द्वारा विस्तार रुचिवाले प्रतिपाद्योंको लक्ष्य करके उन्होंने विस्तारसे कथनकी प्रतिज्ञा की है। ३५४
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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