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________________ तिलोयपण्णत्ती और यतिवृषभ संक्षेप में ही कहने की सूचना की गयी है । तदनुसार तीनों घनफलोंका क्रमशः गद्य में कथन किया गया है और यह कथन मुद्रित प्रतिमें पृष्ठ ४३ से ५० तक पाया जाता है। धवला ( पृ० ५१ से ५५ ) में इस कथनका पहला भाग संपहि' ('संपदि ) से लेकर 'जगपदरं होदि' तक प्रायः ज्योंका त्यों उपलब्ध है । परन्तु शेष भाग, जो आाट पृथ्वियों आदि के घनफल से सम्बन्ध रखता है, उपलब्ध नहीं है, और इससे वह तिलोयपण्णत्तीसे उद्धृत जान पड़ता है - खासकर उस हालत में जब कि धवलाकार के सामने तिलोयपण्णत्ती मौजूद थी और उन्होंने अनेक विवादग्रस्त स्थलोंपर उसके वाक्योंको बड़े गौरव के साथ प्रमाण में उपस्थित किया है तथा उसके कितने ही दूसरे वाक्योंको भी विना नामोल्लेखके अनुवादित करके भी रक्खा है । ऐसी स्थितिमें तिलोयपण्णत्ती में पाये जाने वाले गद्यांशोंके विषय में यह कल्पना करना कि वे धवलापरसे उद्धृत किये गये हैं समुचित नहीं है । प्रस्तुत गद्यांशसे इस विषय में कोई सहायता नहीं मिलती है; क्योंकि उस गद्यांशका तिलोयपण्णत्तीकारके द्वारा उद्धृत किया जाना सिद्ध नहीं है - वह बादको किसीके द्वारा प्रक्षिप्त हुआ जान पड़ता है । उद्धृत किया है और [ यह बतलाना उचित होगा कि यह इतना ही गद्यांश प्रक्षित नहीं है बल्कि इसके पूर्वका "एत्तो चंदारा सपरिवाराणमारायण विहाणं वत्तइस्सामो" से लेकर "एदम्हादो चेव सुत्तादो" तक का अंश और उत्तरवर्ती " तदो ण एत्थ इदमित्थ मेवेत्ति" से लेकर "तं चेदं १६५५३६१ ।” तकका अंश जो ‘चंदस्स सदसहस्सं' नामकी गाथाका पूर्ववर्ती है, वह सब प्रक्षिप्त है । और इसका प्रबल प्रमाण मूल ग्रन्थसे ही उपलब्ध होता है । मूल ग्रन्थ में सातवें महाधिकारका प्रारम्भ करते हुए पहली गाथा में मंगलाचरण और ज्योतिर्लोकप्रज्ञप्तिके कथनकी प्रतिज्ञा करनेके अनन्तर उत्तरवर्ती तीन गाथाओं में ज्योतिषियों के निवास क्षेत्र आदि सत्तर अधिकारोंके नाम दिये हैं जो इस ज्योतिर्लोकप्रज्ञप्ति नामक महाधिकारके अंग हैं। वे तीनों गाथाएं इस प्रकार हैं- जोइसिय- णिवासखिदी भेदो संखा तहेव विरणासो | परिमाणं चरचारो अचरसरूवाणि श्राऊ य || २ || श्राहारो उस्सासो उच्छेहो श्रहिणाणसत्ती । जीवाणं उपपत्ति मरणाई एक समयस्मि ॥ ३ ॥ उग बंधणभावं दंसणगहणंस्स कारणं विवहं । गुणठाणादिवरण महियारसतर सिमाए ॥ ४ ॥ इन गाथाओं के बाद निवासक्षेत्र, भेद, संख्या, विन्यास, परिमाण, चराचर, चरस्वरूप और आयु नामके आठ अधिकारोंका क्रमशः वर्णन दिया है- शेष अधिकारोंके विषय में लिख दिया है। कि उनका वर्णन भवन लोकके वर्णनके समान कहना चाहिये ( 'भावण लोएव्व वत्तव्यं' ) और जिस अधिकारका वर्णन जहां समाप्त हुआ वहां उसकी सूचना कर दी है। सूचना वाक्य इस प्रकार हैं: ३५५
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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