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________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ 'णिवासखेत्तं सम्मत्तं । भेदो सम्मत्तो। संखा सम्मत्ता। विण्णास सम्मत्तं । परिमाणं सम्मत्तं । एवं चरगिहाणं चारो सम्मत्तो। एवं अचरजोइसगणपरूवणा सम्मत्ता । श्राऊ सम्मत्ता ॥" अचर ज्योतिषगणकी प्ररूपना विषयक ७ वें अधिकारकी समाप्तिके बाद ही 'एत्तो चंदाण' से लेकर 'तं चेदं १६५५३६१' तकका वह सब गद्यांश है, जिसकी ऊपर सूचनाकी गयी है। 'आयु' अधिकार के साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं है । अायुका अधिकार उक्त गद्यांशके अनन्तर 'चंदस्स सदसहस्सं' गाथासे प्रारंभ होता है और अगली गाथापर समाप्त हो जाता है। ऐसी हालतमें उक्त गद्यांश मूल ग्रंथके साथ सम्बद्ध न होकर साफ तौरसे प्रक्षिप्त जान पड़ता है। उसका आदिका भाग 'एत्तो चंदाण' से लेकर 'तदोण एत्थ संपदाय विरोधो कायव्वो त्ति' तक तो धवला प्रथम खण्डके स्पर्शानुयोगद्वारमें थोड़ेसे शब्द भेदके साथ प्रायः ज्योंका त्यों पाया जाता है इसलिए यह उससे उद्धृत हो सकता है। परन्तु अन्तका भाग-“एदेण विहाणेण परूविद गच्छं विरलिय रूवं पडि चत्तारि रूवाणि दादण अण्णोण्णभत्थे" के अनन्तरका-धवलाके अगले गद्यांशके साथ कोई मेल नहीं खाता, इसलिए वह वहांसे उद्धृत न होकर अन्यत्रसे लिया गया है । यह भी हो सकता है कि यह सारा ही गद्यांश धवलासे न लिया जाकर किसी दूसरे ही इस समय अप्राप्य ग्रंथसे, जिसमें आदि अन्तके दोनों भागोंका समावेश हो, लिया गया हो और तिलोयपण्णत्तीमें किसीके द्वारा अपने उपयोगादिकके लिए हाशियेपर लिखा गया हो और जो बादको ग्रन्थमें कापीके समय किसी तरह प्रक्षिप्त हो गया हो। इस गद्यांशमें ज्योतिष देवोंके जिस भागहार सूत्रका उल्लेख है वह वर्तमान तिलोयपण्णत्तीके इस महाधिकारमें पाया जाता है। उसपरसे फलितार्थ होनेवाले व्याख्यानादिकी चर्चाको किसीने यहांपर अपनाया है, ऐसा जान पड़ता है। इसके सिवाय, एक बात और भी है; वह यह कि जिस वर्तमान तिलोयपण्णत्तीका मूलानुसार आठ हजार श्लोक परिमाण बतलाया जाता है वह उपलब्ध प्रतियों परसे उतने ही श्लोक परिमाण नहीं मालूम होती, बल्कि उसका परिमाण लगभग एक हजार श्लोक-परिमाण बढ़ा हुआ है। इससे यह साफ जाना जाता है कि मूलमें उतना अंश बादको प्रक्षिप्त हुअा है। इसलिए उक्त गद्यांशको, जो अपनी स्थिति परसे प्रक्षिप्त होनेका स्पष्ट सन्देह उत्पन्न कर रहा है और जो ऊपरके विवेचनसे मूलकारकी कृति मालूम नहीं होता, प्रक्षिप्त कहना कुछ भी अनुचित नहीं है । ऐसे ही प्रक्षिप्त अंशोंसे, जिनमें कितने ही 'पाठान्तर' वाले अंश भी शामिल जान पड़ते हैं, ग्रंथके परिमाणमें वृद्धि हुई है। यह निर्विवाद है कि कुछ प्रक्षित अंशोंके कारण किसी ग्रन्थको दूसरा ग्रन्थ नहीं कहा जा सकता। अतः उक्त गद्यांशमें तिलोयपण्णत्तीका नामोल्केख देखकर जो यह कल्पनाकी गयी है कि वर्तमान तिलोयपण्णत्ती उस तिलोयपण्णत्तीसे भिन्न है जो धवलाकारके सामने थी' वह ठीक नहीं हैं ।
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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