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तिलोयपण्णत्ती और यतिवृषभ वीरसेन स्वामीके समय तक जैन श्राचार्य उपमालोकसे पांच द्रव्यों के आधारभूतलोकको भिन्न मानते थे । जैसा कि राजवार्तिकके दो उल्लेखों से प्रकट है।
इनमेंसे प्रथम उल्लेख परसे लोक आठों दिशाओं में समान परिमाणको लिये हुए होनेसे गोल हुआ और उसका परिमाण भी उपमालोकके प्रमाणानुसार ३४३ घनराजु नहीं बैठता, जब कि वीरसेनका इष्ट लोक चौकोर है, वह पूर्व पश्चिमदिशामें ही उक्त क्रमसे घटता है, दक्षिण-उत्तरदिशा
---इन दोनों दिशायोंमें वह सर्वत्र सातराज बना रहता है। इसलिए उसका परिमाण उपमालोकके अनुसार ही ३४३ घनराजु बैठता है और वह प्रमाणमें पेश की हुई दो गाथाओं पर उसे उक्त आकारके साथ भले प्रकार फलित होता है । राजवार्तिकके दूसरे उल्लेखसे उपमालोकका परिमाण ३४३ घनराजु तो फलित होता है, क्योंकि जगश्रेणीका प्रमाण ७ राजु है और ७ का घन ३४३ होता है। यह उपमालोक है परन्तु इससे पांच द्रव्योंके अाधारभूत लोकका श्राकार आठों दिशाओं में उक्त उक्त क्रमसे घटता-बढ़ता हुश्रा 'गोल' फलित नहीं होता।
"वीरसेन स्वामीके सामने राजवार्तिक आदिमें बतलाये गये श्राकारके विरुद्ध लोकके श्राकारको सिद्ध करनेके लिए केवल उपर्युक्त दो गथाएं ही थीं । इन्हीके आधारसे वे लोकके श्राकारको भिन्न प्रकारसे सिद्ध कर सके तथा यह भी कहनेमें समर्थ हो सके कि 'जिन ग्रन्थोंमें लोकका प्रमाण अधोलोकके मूल में सात राजु, मध्यलोकके पास एक राजु, ब्रह्मस्वर्गके पास पांच राजु और लोकाग्रमें एक राजु बतलाया है वह वहां पूर्व और पश्चिम दिशाकी अपेक्षासे बतलाया है । उत्तर और दक्षिण दिशाकी अोर से नहीं। इन दोनों दिशाओंकी अपेक्षा तो लोकका प्रमाण सर्वत्र सात राजु है । यद्यपि इसका विधान करणानुयोगके ग्रंथों में नहीं है तो भी वहां निषेध भी नहीं है अतः लोकको उत्तर और दक्षिणमें सर्वत्र सात राजु मानना चाहिये।'
वर्तमान तिलोयपण्णत्ती की ९१, १३६ तया १४६ गाथाएं वीरसेन स्वामीके उस मतका अनुसरण करती हैं जिसे उन्होंने 'मुहतल समास' इत्यादि दो गाथाओं और युक्तिसे स्थिर किया है। इन गाथाओंमें पांच द्रव्योंसे व्याप्त लोकाकाशको जगश्रेणीके घन प्रमाण बतलाया है। साथ
१ "अधःलोक मूले ...... षट सप्तभागाः।" (अ० १ सू० १० टीका)
'ततोऽसंख्यान् . . . . . घनलोकः ।" (अ० ३, सू० ३८ टीका ) २ “मुहतलसमास ..... खेत्ते ।" तथा "मूलं मज्झेण ...... खेत्तम्मि " (धवला क्षेत्रानुयोगद्वार पृ० २०) ३. 'णच तश्याए. गाहाएसह विरोहो, एत्थवि दोसुं दिसासु चउविहविक्खंभदसणादो ।'-धवला क्षेत्रा
नुयोगद्वार पृ. २१ । ४. 'णच सत्तरज्जुबाहल्लं करणाणिओगसुत्त-विरुद्धं, तत्थ विधिप्पडिसेधाभावादो ।'-धवला क्षेत्रानु
योगद्वार पृ. २२।