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________________ जैन साहित्य में राजनीति फलतः राजनीतिके मूल सिद्धान्त अवस्थित है उनके प्रयोगकी पद्धतियों में ही सदा परिवर्तन होता रहता है । सन्धि, विग्रह, यान, ग्रासन, संश्रय और द्वैधीभाव ये राजाओंके छह गुण हैं, उत्साह मन्त्र और प्रभाव यह तीन शक्तियां हैं. साम, दान, भेद और दण्ड यह चार उपाय हैं । सहाय, साधनोपाय, देशविभाग, कालविभाग और विपत्तिप्रतीकार ये पांच अङ्ग हैं। राजनीतिके येही मुख्य सिद्धान्त हैं जो कि कर्मभूमि के प्रारम्भ में सम्राट् भरतके द्वारा निश्चित एवं श्राचरित किये गये थे और आज भी अनिवार्य हैं। हां, साधन एवं प्रयोग परिस्थितिके अनुसार पृथक् पृथक् हो सकते हैं । संस्कृत जैन साहित्य में राजनीतिका वर्णन, कहीं पिता या गुरुजनों द्वारा पुत्र अथवा शिष्यके लिए दिये गये सदुपदेश के रूप में मिलता है, अन्यत्र किसी राजाकी राज्य व्यवस्था अथवा चरित्र चित्रण के रूपमें उपलब्ध होता है अथवा स्वतंत्र नीतिशास्त्र के रूप में प्राप्त होता है । उदाहरण के लिए श्राचार्य वीरनन्दीके महाकाव्य 'चन्द्रप्रभचरित' में राज्य सिंहासनपर आरूढ़ युवराजको उसके पिता के उपदेशको ही लीजिये । 'हे पुत्र ! यदि तुम प्रभावक विभूतियोंकी इच्छा करते हो तो अपने हितैषियों से कभी उद्विग्न मत होना, क्योंकि जनानुराग ही विभूतियोंका प्रमुख कारण है । सम्पदाओं का समागम उसी राजाके होता है जो कि संकटों से रहित होता है और संकटोंका अभाव भी तभी संभव है जब कि अपना परिवार अपने अधीन हो । यह निश्चय है कि परिवारके अपने अधीन न रहनेपर भारी संकट या पड़ते हैं । यदि तुम अपने परिवारको ग्राधीन रखना चाहते हो तो पूर्ण कृतज्ञ बनो, क्योंकि कृतघ्न मनुष्य सब गुणों से भूषित होकर भी सब लोगोंको उद्विग्न ही करता है । तुम कलिकालके दोषोंसे मुक्त रह कर अर्थ और काम पुरुषार्थ की ऐसी वृद्धि करना जो धर्म की विरोधी न हो क्योंकि समान रूपसे त्रिवर्ग सेवन करनेवाला राजा ही दोनों लोकों को सिद्ध करता है । जो राज कर्मचारी उनका तुम निग्रह करना, और जो प्रजाकी सेवा करते हैं उनको वृद्धि देना, जन तेरी कीर्ति गावें गे ( अर्थात् यशस्वी बनो गे ) और क्रमशः वह दिग् दिगन्त तक फैल जायगी ।' तुम अपने मन की वृत्तिको सदा गूढ़ रखना, और अपने उद्योगों को भी इतना छिपाकर रखना कि फल के द्वारा ही उनका अनुमान किया जा सके। जो पुरुष अपनी योजना छिपा कर रखता है और दूसरेके मन्त्रका भेद पा जाता है उसका शत्रु कुछ नहीं कर सकते हैं । तुम तेजस्वी होकर समस्त दिशाओं में व्याप्त हो जाना, समस्त राजाओं में प्रधानताको प्राप्त करना, तब सूर्य के किरण -कलापके समान तेरा कर-प्रपात भी समस्त भूमण्डल पर निर्वाध रूपसे होगा । अर्थात् समस्त भूमण्डल तेरा करदाता हो जायगा । प्रजाको कष्ट पहुंचाते हैं क्योंकि ऐसा करनेसे बन्दी - १ - चन्द्रप्रभचरित सर्ग ५ श्लो ३६-४३ । ३६३
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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