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________________ वर्णी - अभिनन्दन ग्रन्थ अन्य साधक उद्धरण - १ इसके अतिरिक्त सूर्यप्रकृति में उल्लिखित कलिजोग कलियुग, द्वापर युग्म, त्रेता कृत युग्म तथा वैदिक नाम कलि, द्वापर, त्रेता तथा कृतयुगमें गाढ़ समता है। श्रार्य पञ्चांग में युग तथा पर्व पर्यायवाची रहे जिसका अर्थ प्राचीन समय में पक्ष ( शुक्ल, कृष्ण ) होता था। 'भगवती सूत्र में' भी 'कृतयुग्म शब्द आया है। डा० जैकोवीके मतसे भगवती सूत्रका रचनाकाल चौथी शती ईसापूर्व के अन्त या तीसरी शती ई० पू० होना चाहिये । वैदिक वर्षका प्रारम्भ संभवतः वर्षा ऋतुके प्रारम्भमें माघ (संभवतः एकाष्टक दिन माघ बहुल जैसा कि सूत्रसे प्रतीत होता है ) में हुआ होगा । इसका पोषण ‘मण्डूक ऋक्' तथा 'एकाष्टक ऋक् ' से स्पष्ट होता है । मध्य एशिया तथा बुखारा प्रान्त में अब भी वर्षाका प्रारम्भ उसी दिन के आसपास होता है जिस दिन शरदऋतु में दिनरात बराबर होते हैं । जब कि दक्षिणायन के साथ ही भारतमें वृष्टि प्रारम्भ हो जाती है इसी आधार पर डा० जैकोबीका अनुमान है कि मया या फाल्गुनी में दक्षिणायन के साथ वर्ष प्रारम्भ होती थी तथा उत्तरायण भाद्रपदों में होता था । जैन तथा वैदिक परम्परामें प्रचलित नक्षत्रोंके विषम अन्तरालोंको ध्यान में रखते हुए उक्त ज्योतिष सम्बन्धी घटनाका समय मोटे रूपते २२८० तथा ३२४० के बीच अथवा ४२०० ईसापूर्व निश्चित किया जाना चाहिये। उत्तर कालीन वेदाङ्ग ज्योतिष तथा जैन ग्रन्थोंमें दक्षिण यनका समय आश्लेषा का मध्य तथा उत्तरायणका समय घनिष्ठा ( १३२० ईसापूर्व ) में दिया है कहीं कहीं इससे भी पहिलेके समय की सूचक घटनाएं मिलती हैं । गर्ग तथा जैन प्रक्रिया के अनुसार समान दिनरात के चक्र की तिथि श्रवण और मघा में भी मिलती हैं जिससे ८०४० ई० पू० का संकेत मिलता है। जिस समय सूर्य विशाखा और कृत्तिका चक्र होकर मकर वा कर्क रेखा पर रहता है। सरस्वती आख्यानका महत्व - वेदोंके सरस्वती श्राख्यान में भी ज्योतिषशास्त्र सम्बन्धी सारगर्भित उल्लेख हैं। विशेषकर उस समय जब यह नदी समुद्र तक बहती थी तथा गंगा और यमुनासे भी अधिक पवित्र मानी जाती थी । इसके तट पर जब यश प्रारम्भ हुआ था तब वसन्तके प्रारम्भ में होने वाला सम दिनरात संभवतः मूल नक्षत्र में पड़ा था। यह नक्षत्र अब भी सरस्वती विषयक कार्योंके लिए पवित्र माना जाता है यद्यपि अव यह दशहरे पर उदित होता है । तैत्तिरीय संहितामें सरस्वती तथा अमावस्याको समान कहा है तथा सरस्वती के प्रिय सरस्वानको पूर्णिमा से अभिन्न बताया है। यतः मूल नक्षत्रमें पड़ी अमावस्या वसन्त सम दिनरातका संकेत करती है और यज्ञके वर्ष के प्रारम्भकी सूचक थी, नक्षत्र भी मूल (प्रारम्भ, जड़ ) १ सूर्य प्र० पृ० १६७ । २ ऋक्वेद ७ १०३ - ७ । वेद ३-१०। १९६
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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