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________________ श्रद्धाञ्जलि मान ली है वह पीछे पड़ता है पर वे उसे मार्गमें ही छोड़ते जाते हैं । कहते हैं उसे ग्रहण करनेमें नहीं परन्तु त्यागमें ही सच्चा कल्याण है। भी वर्णीजीके आदेशानुसार मनुष्य वर्गसे यही प्रार्थना की जा सकती है कि सभी सच्चे ज्ञान को प्राप्त करें व त्याग मार्गको अपनायें । जीवन भर प्रयास करके भी मनुष्य सच्चे सुख तक नहीं पहुंच पाते हैं । वर्णीजी कहते हैं कि त्यागको समझो और उसे अपनाओ, सच्चा सुख तुरन्त तुम्हारे पास आ पहुंचे गा। गांधीजीने जिस सत्यको ईश्वर कहा है, वणीजी उस सत्य और अहिंसाके व्यवहार हैं। वण जीके जीवनने हमें वह सुलभ मार्ग दिखाया है, जिस पर मनुष्य मात्र चलना सीख ले तो अपना, अपने समाजका, अपने देशका व सारे संसारका कल्याण करे गा, ऐसी मेरी आस्था है। सागर] ( सेठ) बालचन्द्र मलैया, बी० एस-सी० पूज्य वींजीके सम्पर्क में रहकर समाज सेवा करने में सबसे अधिक आनन्दानुभव हुआ । मेरे जीवन पर उनके चरित्र और ज्ञानकी अमिट छाप पड़ गयी। ४० वर्षोसे अधिक समय व्यतीत हुश्रा जब कि जबलपुर में एक कृश देहधारी किन्तु शुभ्र हृदय तथा आकर्षक मानवसे मिलनेका शुभ अवसर प्राप्त हुश्रा। उस मानवकी बोलीमें अपनाने और लुभानेकी शक्ति विद्यमान थी। सैकड़ों भक्तोंको पत्र लिखकर आत्मस्थ करनेका इनका प्रकार तो अद्भुत है । वे लिखते हैं-"अब तो सर्वतः चित्तवृत्ति संकोच कर कल्याण मार्गकी अोर ही लगा देना उचित है क्योंकि मानवीय पर्यायकी सफलता इसीमें है और यही इस पर्यायमें प्रशस्थता है जो मोक्षमार्गके द्वारका कपाट खुलता है तथा मूर्छाका पूर्णरूपसे प्रभाव भी यहीं होता है............ यद्यपि जैनधर्म में श्राश्रम नहीं फिर भी लोकाचार तो है ही।" लगभग तीन साल तक शिक्षामन्दिरके प्रचार कार्यमें मुझे उनके साथ रहनेका सतत सौभाग्य रहा है । मैंने देखा, कि 'यशःकीर्ति' नामकर्म नौकरकी भांति सदा ही उनकी सेवा करता रहा। मैंने नहीं जाना कि कोई भी व्यक्ति वर्णीजीसे विना प्रभावित हुए रहा हो । शिक्षामन्दिरका ध्येय सफलताकी श्रोर ही अग्रसर होता गया, परन्तु दुर्भाग्यसे कई अन्य कारणोंकी वनहसे हमारी श्राशा फलवती न हो पायो । उसी दौरानमें कई मधुर प्रसंग आये। एक दिन कहने लगे "भैया' उमरावसिंहने ब्रह्मचारी होनेपर अपना नाम ज्ञानानन्द रखा, मैं मौका पड़ा तो अपना नाम भोजनानन्द रखूगा" कैसी सरलता और स्वीकारोक्ति है। तारीफ यह कि भोजन अथवा व्यक्ति श्रादिका ममत्त्व उन्हें सैंतीस
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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