SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 558
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भारतीय-ज्योतिषका पोषक जैन-ज्योतिष २६+३२।६२ है । सावन मास और चान्द्रमासका अन्तर अवम होता है अतः ३०-२९+३२/६२ = ३०/६२ अवम भाग हुआ, इस अवमकी पूर्ति दो मासमें होती है।" अनुपातसे एक दिनका अवमांश १/६२ आता है । यह सूर्यप्रज्ञप्ति सम्मत अवमांश वेदाङ्गज्योतिषमें भी है। वेदाङ्गज्योतिषकी रचनाके अनन्तर कई शती तक इस मान्यतामें भारतीय ज्योतिषने कोई परिवर्तन नहीं किया लेकिन जैन ज्योतिषके उत्तरवर्ती ज्योतिषकरण्डक आदि ग्रन्थों में सूर्यप्रज्ञप्ति कालीन स्थूल अवमांशमें संशोधन एवं परिवर्तन मिलता है, प्रक्रिया निम्न प्रकार है इस काल में ३०/६२ की अपेक्षा ३१/६२ अवमांश माना गया है। इसी अवमांश परसे त्याज्य तिथिकी व्यवस्था की गयी है। इससे वराहमिहिर भी प्रभावित हुए हैं उन्होंने पितामहके सिद्धांतका उल्लेख करते हुए लिखा है कि 'रवि शशिनोः पञ्चयुगवर्षाणि पितामहोपदिष्टानि । अधिमासस्त्रिंशद्भिर्मासैरवमो द्विषष्ट्या तु ॥' अतः स्पष्ट है कि अवम-तिथि क्षय सम्बन्धी प्रक्रियाका विकास जैनाचार्योंने स्वतन्त्र रूपसे किया । समय-समयपर इस प्रक्रियामें संशोधन एवं परिवर्तन होते गये। वेदाङ्गज्योतिष में पौंका ज्ञान करानेके लिए दिवसात्मक ध्रुवराशिका कथन किया गया है। यह प्रक्रिया गणित दृष्टि से अत्यन्त स्थूल है । जैनाचार्योंने इसी प्रक्रियाको नक्षत्ररूपमें स्वीकार किया है। इनके मतसे चन्द्र नक्षत्र योगका ज्ञान करनेके लिए ध्रुवराशिका प्रतिपादन निम्न प्रकार हुआ है "चउबीससमं काऊण पमाणं सत्तसट्टिमेव फलम् । इच्छापव्वेहिं गुणं काऊणं पज्जया लद्दा ॥" अर्थात् ६७/१२४४१८३०/६७ = ९१५/६२ = १४+४७/६२ = १४+९४/१२४की पर्व ध्रुवराशि बतायी गयी है । तुलनात्मक दृष्टि से वेदाङ्गज्योतिष सम्मत और जैनमान्यताकी ध्रुवराशिपर विचार करनेसे स्पष्ट है कि नक्षत्रात्मक ध्रुवराशिका उत्तरकालीन राशिके विकासमें महत्त्वपूर्ण योग है। आगे इसी प्रक्रियाका विकसित रूप क्रान्तिवृत्तके द्वादशभागात्मक राशि है। पञ्चवर्षात्मक युगमें जैनाचार्योंकी व्यतीपात-आनयनसम्बन्धी प्रक्रियाका उत्तरकालीन भारतीय ज्योतिषमें महत्त्वपूर्ण स्थान हैं । ज्योतिष करण्डककी निम्न गाथाओंमें इस प्रक्रियाका विवेचन मिलता है। अयणाणं सम्बन्धे रविसोमाणं तु वे हि य जुगम्मि । जं हवइ भागलद्धं वइहया तत्सिया होन्ति ॥ वायत्ततरीपमाणे फलरासी इच्छिते उ जुगभेए । इच्छिय वइवायपि य इच्छं काऊण आणे हि ॥ १-'द्वाषष्ठितमघस्रस्य ततस्सूर्योदयक्षणे । उपस्थिता पूर्वरीत्या द्राक त्रिषष्टितमी तिथिः ।।' टाना ." . .. २–'निरेक द्वादशाभ्यस्तं द्विगुणं रूपसंयुतम् । षष्ठ्या षष्ठ्या युतं द्वाभ्यां पर्वणां राशिरुच्यते ।' -वेदांगज्योतिष [ याजुष ज्योतिष सोमाकर सुधाकर भाष्याभ्यां सहितम् ], पृ० २० ।
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy