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________________ काव्यप्रकाश-संकेतका रचनाकाल (३) पूर्वोक्त कथनानुसार माणिक्यचन्द्र, मन्त्री वस्तुपालके समकालीन थे। वस्तुपालके कुलगुरु विजयसेन सूरिके प्रशिष्य और उदयप्रभसूरिके शिष्य जिनभद्र के द्वारा वस्तुपालके पुत्र जयन्तसिंहके पठनार्थ रचित एक प्रबन्धावलीके अनुसार ( यह प्रबन्धावली आचार्य जिनविनयजी द्वारा सम्पादित पुरातन प्रबन्ध संग्रहमें संकलित है ) सं० १२९० में वस्तुपालने एक बार माणिक्य-चन्द्रको अपने पास आनेके लिए आमन्त्रण भेजा । किन्तु आचार्य किसी कारणवश मार्ग में ही रुक गये आ नहीं पाये । इससे वस्तुपालने खम्भात आये हुए आचार्यके उपाश्रयसे कुछ चीजें युक्ति पूर्वक चोरीसे मंगवा लीं । इस उपद्रव की शिकायत लेकर आचार्य मन्त्रीके पास आये। उस समय मन्त्रीने उनका पूर्ण आदर-सत्कार किया और सब चीजें उनको वापस कर दी । विक्रमकी पन्द्रहवीं शतीमें रचे हुए जिनहर्षकृत वस्तुपाल चारित्रके अनुसार वस्तुपालने अपने ग्रन्थ भण्डारके प्रत्येक शास्त्रकी एक एक प्रति माणिक्यचन्द्रको भेट की। ___ यह भी प्रसिद्ध है कि राजपूतानेमें आये हुए झालोरके चौहान राजा उदयसिंहका मन्त्री यशोवीर, वस्तुपालका घनिष्ट मित्र था । उपर्युक्त प्रबन्धावलीमें माणिक्यचन्द्रका, यशोवीरकी प्रशस्तिमें लिखा हुआ, एक श्लोक भी मिलता है। इस प्रकार विशेष विश्वसनीय समकालीन प्रमाणोंके आधारपर, हम यह कह सकते हैं कि, माणिक्यचन्द्र वस्तुपाल और यशोवीरके समकालीन थे, इतना ही नहीं किन्तु उन सबमें परस्पर घनिष्ट सम्पर्क भी था । अब यदि हम संकेतका रचनाकाल सं० १२१६ मानते हैं तो एक बड़ा भारी कालव्यतिक्रम उपस्थित होता है । वस्तुपालको सं० १२७६में घालकाके वीरघवलके मन्त्री पदपर प्रतिष्ठित हुए थे,यह इतिहाससिद्ध बात है । सं० १२१६ में तो शायद उसका जन्म भी नहीं हुआ होगा । अतः वस्तुपाल और माणिक्यचन्द्र के सम्पर्कके सम्बन्धमें तत्कालीन वृत्तान्त संपूर्णतया विश्वसनीय होनेसे 'वक्त्र' शब्दका अर्थ ऐसा करना चाहिए जो उसके साथ सुसंगत हो । इस प्रकार संकेतकी ग्रन्थ प्रशस्तिके 'वक्त्र' का अर्थ चार (ब्रह्माके मुख) अथवा छह (कार्तिकयके मुख ) करना चाहिये । क्योंकि साहित्य संसार धार्मिक आस्थाओं से परे रहा है जैसा कि अलंकार नियमानुसारी जैन कवियोंके वर्णनोंसे सिद्ध है । तदनुसार 'रस वक्त्रग्रहाधीश' का अर्थ सं० १२६६ करना न्याय्य है । आचार्य माणिक्यचन्द्र के जीवन और कार्यकी ज्ञात बातोंके प्रकाशमें यह विशेष उचित प्रतीत होता है। १ सिरिवत्थुपाल नंदण मंती सर जयन्त सिंहभमणत्थं ! नागिंद गच्छ मंडण उदय घहसूरि सीसेणं ।। जिण मट्टैणय विक्कम कालाउ नवइ अहिय बारसार । नाणा कहाण पहाणा एस पबधावकी रईया ।। २ पु. प्रबन्ध सं. पृ. ७४। पुरातन प्रबन्ध संग्रह, पृ० १३५ ३६७
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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