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________________ से तो सब मन बहलाते हैं, कम से कम कुदृष्टिसे बचे चिन्ह ) लगा लिया करो, हम सबकी यही श्राकांक्षा है कोउ करत टोटका दौना, ई घर और वार पुरा पालेमें, तुम कड़वौ करे नजर बरका कें, 'ईसुर' इने खुसी बिध राखै, बुन्देली लोक- कवि ईसुरी रहने के लिए ढिटौना ( माथेपर काजलका कि तुम दीर्घजीवन प्राप्त करो लडुआ से मौना । हौ लाल खिलौना । देवौ करे ठिटौना | जुग जुग जियै निरौना । जिस प्रकार उंगली के थोड़े ही संकेत से डोर में बंधी हुई चकरी जाती और तुरंत लौट आती है, वही दशा प्रेमी की है । वह प्रेमिकाके दर्शनों के लिए जाता है और निराश लौट आता है, दिन भर यही क्रम रहने पर भी तृप्ति नहीं होती। इसीलिए वह कहता है कि घरोंकी दूरी बहुत ही खटकने वाली बात है – 'तकछुक' शब्दने तो कमाल कर दिया है, 'अवसर' तकछकके काइंयापन और उतावली को नहीं पा सकता । यथा हमसें दूर तुमायी बखरी, रजउ हमें जा अखरी । बसौ चाइयत दोर सामने, खोर सोड़ हो सकरी । तक-छुक नई मिलत कउबे कौं, घरी भरे कौं छकरी । हमरीतुमरी दोउ जननकी, होवे कौं हां तकरी | फिर आवैं फिर जावैं 'ईसुर' भये फिरत हैं चकरी । - प्रेमी कितनी ठोकरें खाता है, क्या से क्या हो जाता है, इसको कितने ही गीतों में कितने ही प्रकार से कहा है । निम्नलिखित गीत में तो पराकाष्टा ही कर दो है । वे कहते हैं, बड़े-बड़े, मोटे-ताजे भी सूखकर छुहारे की भांति रह जाते हैं और जो इकहरे बदन के हैं उनका तो कहना ही क्या, हाड़ों के पिंजड़े पर खाल इस तरह रह जाती है जैसे मकड़ी का जाला और इस सबका कारण है प्रेमका व्यौरेवार वर्णन गीत में देखिए खटका, जौ तन हो गौ सूक छुआरौ, बैसइं हतौ इकारौ । रै गई खाल हाड़ के ऊपर, मकरी कैसो जारो । तन भौ बांस, बांस भौ पिंजरा, रकत रौ ना सारौ कहत 'ईसुरी' सुन लो प्यारो, खटका लगौ तुमारौ । और क्या कोई दुबला पतला होगा । हड्डीके प्रेम-पंथका खटका ऐसा ही हुआ करता है, भुक्त भोगी जानते ही हों गे, छुहारेसे भी अधिक ढांचेपर चमड़ा ही चमड़ा रह गया है और वह भी इतना ५६७
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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