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वर्णी- अभिनन्दन ग्रन्थ
उसमें प्रतिक्षण बाधा नहीं डालनी चाहिये जैसा कि क्षणिकवादमें होता है । फलतः विज्ञानवादीको क्षणिकवादके अतिरिक्त अन्य सिद्धान्त स्वीकार करना पड़ेगा । इस प्रकार तार्किक युक्तियों के द्वारा जैनाचार्योंने सिद्ध किया है कि बौद्ध प्रमाण परिभाषा न तो पदार्थों के यथार्थ ज्ञान करानेके उद्देश्य में सफल होती है और न उसके मान्य प्रत्यक्ष और अनुमानकी प्रमाणता ही सिद्ध करती है। अविसंवादकता' को लेकर ही विज्ञानवादी घपले में पड़ता है इसे ही प्रामाण्यकी एक मात्र कसौटी मानकर भी वह भूल जाता है कि इसके चरितार्थ होने के लिए वस्तुको कमसे कम दो क्षण रहना चाहिये जब कि वह उसे एक क्षणके बाद ठहरने देनेकी भी उदारता नहीं दिखा सकता है ।