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________________ कन्नड़ भाषाको जनोंकी देन श्री प्रा० के० जी० कुन्दनागर, एम० ए० ____ कन्नड़ भाषाके निर्माताओं तथा कन्नड़ साहित्यके विधाताोंमें जैनियोंका सर्व प्रथम तथा सर्वोत्तम स्थान है । इस दिशामें उन्होंने इतना अधिक कार्य किया है कि, भाषा, व्याकरण, साहित्य, छन्द, दर्शन, गणित, राजनीति, विज्ञान, टीका आदि कोई भी शाखा उनके कर्तृत्वसे अछूती नहीं है । भावी कर्णाटकियोंके लिए उन्होंने ऐसी समृद्धि छोड़ी है जिसके लिए उनकी सन्तान सदैव ऋणी रहेगी। समय अनुकूल था; यदि राजाश्रयमें वे लिखते थे तो विद्वान भी उनकी रचनात्रोंका समादर करते थे । वे स्वयं भी विविध भाषाओंके पंडित थे तथा जनताका धर्मप्रेम उनकी प्रत्येक रचनाको जनपदके कोने कोने तक ले जाता था। इस प्रकार बढ़ते बढ़ते जैन साहित्य कर्णाटकके विद्वानों और धर्मात्माओंकी आराधनाका विषय बन गया था। ऐसे विशाल साहित्यके दिग्दर्शन मात्रका यहां प्रयत्न किया जा रहा है क्योंकि उसका आंशिक वर्णन भी कठिन है फिर पूर्ण विवेचनकी तो कहना ही क्या है । इस विवेचनमें चौदहवीं शतीके प्रारम्भ तकके साहित्यके संकेत रहेंगे। क्योंकि तबतक इन मनीषियोंका कार्य पूर्ण हो चुका था। श्रुतकेवली भद्रबाहुके नेतृत्वमें जैन संघकी दक्षिण यात्रा तथा उनका श्रवण बेलगोलमें निवासके समयसे ही दक्षिणमें जैन धर्मका प्रसार प्रारम्भ होता है। अपने धर्मके प्रचारके लिए पूर्ण प्रयत्न करके भी वे चोल राजाओंके दमनके कारण तामिल जनपदमें असफल ही रहे। दूसरी ओर कर्णाटकके गंग, चालुक्य, राष्ट्रकूट, कदम्ब, होयसल शासक सब धर्मों के प्रति उदार थे फलतः जैनधर्म वहां सरलतासे फूला फला। आधुनिक धर्म प्रचारकोंके समान जैनाचार्योंने भी अपने सिद्धान्तोंको हृदयंगम करनेके लिए कन्नड़ भाषाको माध्यम बनाया था जैसा बौद्धोंने भी किया था क्यों कि अशोक-लेख तथा बौद्ध विहार कर्णाटकमें मिले हैं । हां कन्नड़में कोई साहित्य अवश्य नहीं मिला है। हालमिडि लेखसे ज्ञात होता है कि चौथी शती पू० से लेकर ई० ४ शती ई० के मध्यतक कन्नड़ लिखने पढ़ने योग्य न हो सकी थी फलतः संस्कृत प्राकृतसे शब्द लेकर जैनोंने इसे समृद्ध किया। तथा कितने ही कन्नड़ शब्दोंको प्राकृतमें भी लिया फलतः कन्नड़ शब्द भी तत्सम, तद्भव और देश्य हो सके । कमल, कुसुम, वीर, बात, संगम, मोक्ष, आदि संस्कृत शब्द तत्सम हैं । इनके अर्थोके वाचक कन्नड़ शब्द होते हुए भी चम्प तथा शैलीकी दृष्ठिसे तत्सम ४४५
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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