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________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ चार भावनाएं उक्त नियमोंके सिवाय जैनाचारमें कुछ ऐसी भावनाओंका समावेश किया गया है. जिनका परिपालन मनुष्यको बहुत उन्नत बनाता है । उन भावनाओंमें चार मुख्य हैं । पहली 'सर्व-सत्त्व-समभाव' । इसका तात्पर्य यह है कि मनुष्य प्राणिमात्रको अपने बराबर समझे । जिन कामोंके करनेसे उसे स्वयं दुःख होता हो उनका प्रयोग दूसरे प्राणियों पर न करे। अपने ही समान दूसरों को भी ऊंचा उठानेका प्रयत्न करे । उसका यह विश्वास होना चाहिये कि प्रत्येक जीव अनन्त गुणोंका भंडार है। वह परमात्मा बन सकता है. फिर हीनता कैसी ? इस भावनाके अनुसार गृहस्थको प्रत्येक प्राणिसे मित्रकी तरह व्यवहार करना आवश्यक है। दूसरी है 'प्रमोद भावना', इसका तह तात्पर्य है कि गृहस्थ गुणीका अादर करता है। उसे देखकर उसका हृदय विकसित हो उठता है । जो गुणी जनोंका अादर करता है वह गुणोंके विस्तार करनेमें सहायक होता है । इसलिए गुणवान्का अादर करना चाहिये । ___ तीसरी भावना है दया, किसी भी प्राणीको दुखी और पीडित देखकर दयाका भाव अवश्य पैदा होना चाहिये । क्योंकि दयालुताके विना मनुष्यमें स्वार्थ त्यागकी भावना नहीं आ पाती । और स्वार्थत्यागके विना दूसरेके दुःखोंको दूर नहीं किया जा सकता है । जो व्यक्ति दूसरोंको सुखी बनाता है, संसार उसका स्वयं मित्र बन जाता है । अतः दुखी जनोंका दुःख मेटनेकी भी भावना आवश्यक है। ___ संसार में एक चौथे प्रकारके भी प्राणी होते हैं जिन्हें दुर्जन कहते हैं । दुर्जन अकारण ही विरोध कर बैठते हैं और हितकी बात कहने पर भी सन्मार्गकी ओर नहीं लगते बल्कि उल्टे असन्मार्गकी ओर ही जाते हैं । सद् गृहस्थ ऐसे व्यक्तियोंसे भी घृणा या द्वेष नहीं करता । जहां तक उसका प्रयत्न चलता है, वह उनको सुधारनेकी ही चेष्टा करता है और अपने प्रयत्नमें असफल होनेपर भी खेद खिन नहीं होता । वह सदा इस बातका प्रयत्न करता है कि विरुद्ध मार्ग पर चलनेवालोंके प्रति भी मेरे मनमें रोष उत्पन्न न हो। उसकी यह भी भावना रहती है कि संसारसे वैर और विरोधको जितना भी मिटाया जा सके मिटा दिया जाय। जैनाचारका प्रधान लक्ष्य ___ इस तरह प्राणिमात्रमें दया, क्षमा, पवित्रता, सरलता, नम्रता, उदारता, सहिष्णुता, परदुःख कातरता, सेवा परायणता, आदि सद्गुणोंको उत्पन्न करना जैनाचारका प्रधान लक्ष्य है। मानव चरित्रमें जितनी उज्ज्वलता तथा पवित्रता आवश्यक है,जैनाचारमें उसको लानेका ही प्रयत्न किया गया है। जैनाचारके उपर्युक्त संक्षिप्त परिचयसे सहज ही यह समझमें आ सकता है कि मानव जीवनमें जैनाचारका ११२
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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