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________________ कारकलका भैररस राजवंश राजा वीरपाण्ड्यने गुरुकी सम्मतिको सहर्ष स्वीकार किया और जल, गंध, आदि उत्तम अष्टद्रव्योंको मंगाकर उस शिलाकी प्रारंभिक पूजा की । बादमें भट्टारकजीको मठपर पहुंचाया एवं मंत्री, पुरोहित, आदिको विदा कर राजा वीरपाण्ड्य अपने महलपर चला आया। कुछ समय बाद एक रोज वीरपाण्ड्यने शिल्पशास्त्रके मर्मज्ञ, कुशल कई शिल्पियोंको बुलवाकर श्री बाहुबलिस्वामोकी एक विशालकाय भव्य प्रतिमा तैयार कर देनेके लिए सम्मानपूर्वक प्राज्ञा दी। शिल्पियोंसे मूर्तिनिर्माण संबन्धी सूक्ष्म परामर्श तथा विचार-विनिमयके बाद मूर्तिनिर्माणकार्यकी देख-रेख राजाने अपने पुत्र युवराज कुमारके हाथमें सौंप दी । साथ ही साथ राजाने ज्योतिष शास्त्रके मर्मज्ञ अपने सभा-पण्डितोंको बुलवाकर इसके प्रारंभके लिए शुभमुहूर्त निकलवाया। वीरपाण्ड्य गुरु ललितकीर्तिजीके साथ जिनालय गया और पूजा, अभिषेकादिके अनंतर प्रारब्ध मूर्तिनिर्माण कार्य निर्विघ्न संपन्न हो इसलिए अनेक व्रत, नियम, आदि स्वीकार किये । ललितकीर्तिजी, मंत्री, पुरोहित, आदि राजपरिवारके साथ वह पर्वतपर गया और निर्दिष्ट शुभ मुहूर्तमें अभिषेक-पूजादि पूर्वक मूर्तिनिर्माणका कार्य प्रारंभ करवाया । मूर्तिनिर्माणका कार्य राजकुमारकी देख-रेखमें निर्विघ्न रूपसे चलता रहा । बीच-बीचमें राजा भी जाकर योग्य परामर्श दिया करता था। दीर्घकालीन परिश्रम एवं प्रचुर अर्थव्ययसे जब मूर्ति तयार हुई तब राजाको ठसे पर्वतपर ले जाने की तीव्र चिंता हुई । फलस्वरूप इसके लिए बीस पहियोंकी एक मजबूत, एवं विशाल गाड़ी तयार करवायी गयी । गाड़ी तयार होते ही दस हजार मनुष्यों ने इकडे होकर उस प्रतिमाको गाड़ीपर चढाया । बड़ी-बड़ी मजबूत रस्सियोंको बांधकर राजा, मंत्री पुरोहित, सेनानायक तथा एकत्रित जनसमुदाय मिलकर वाद्य एवं तुमुल जयघोषके साथ गाड़ीको ऊपरकी ओर खींचने लगे। दिनभर खींचते रहने पर भी उस दिन गाड़ी थोड़ी ही दूर चढ़ सकी। सायंकाल होते ही हज़ारों खंभोंको गाड़कर गाड़ी वहीं बांध दी गयी। दूसरे दिन प्रातः काल होते ही फिर कार्य शुरू हुआ । उस दिन गाड़ी कुछ अधिक दूर तक ले जायी गयी । इस प्रकार एक मास तक क्रमसे अधिक-अधिक खींच-खींच कर मूर्ति पर्वतके शिखरपर पहुंचायी गयी । राजा अागन्तुकोंका अन्न, फल, पान, सुपारी, श्रादिसे यथेष्ट सत्कार करता रहा । इस धार्मिक उदारताको देख कर जनता मुक्तकण्ठसे उसकी प्रशंसा करती रही। पहाड़के ऊपर मूर्ति २२ खंभोंसे बने हुए एक विशाल एवं सुंदर अस्थायी मण्डप में पधारायी गयी। और पूर्ववत् राजकुमारके निरीक्षणमें लगातार एक साल तक मूर्ति निर्माणका अवशिष्ट कार्य सम्पन्न होता रहा । मूर्तिकी लता, नासाग्र दृष्टि, आदि रचना की पूर्ति पहाड़ पर ही हुई। मूर्ति निर्माण कार्य समाप्त होते ही वीरपाण्ड्यने शिल्पियोंको भर-पूर भेंट दी तथा संतुष्ट करके घर भेजा। इसके बाद पहाड़ पर मण्डप निर्माण करा कर शा० शक १३५३ विरोधिकृत संवत्सर, फाल्गुन शुक्ला द्वादशी [ ई० सन् १४३२, फरवरी ता० १३ ] के स्थिर लग्न में श्री १००८ बाहुबलि ३२ २४९
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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