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________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ जिनदत्त घूमता-घूमता कुछ कालके बाद मैसूर राज्यके 'हुंच' स्थानपर पहुंचा। वहां पर भीलोंकी मददसे यह एक नया राज्य स्थापित करके उसका शासन करने लगा । पीछे इसने दक्षिण मधुराके प्रसिद्ध पाण्ड्यवंशी राजा वीरपाण्ड्यकी पुत्री पद्मिनी और अनुराधाके साथ विवाह किया। नामकरण राजा जिनदत्तरायके पार्वचन्द्र तथा नेमिचन्द्र नामक दो पुत्र हुए थे। पार्श्वचन्द्रने अपने नामके अंतमें 'पाण्ड्य भैरवराज' यह नूतन उपाधि जोड़ ली थी। भैरवी पद्मावतीके द्वारा अपने पिताकी रक्षा एवं अपनी माताका पाण्ड्य वंशीया होना ही इस उपनामको अपनानेका कारण बतलाया जाता है। इस वंशके सभी शासक 'पाण्ड्य भैरव' इस उपनामको बड़े श्रादरके साथ अपने नामके आगे जोड़ते रहे । पूर्वोक्त कारकलका भैररस इसी 'भैरवरस' का बिगड़ा हुआ रूप है। भैररसवंशके राजाश्रोंमें निम्नलिखित राजा विशेष उल्लेखनीय हैं- . पाण्ड्यदेव अथवा पाण्ड्यचक्रवर्ती [ ई० सन् १२६१ ] इसने कारकलमें 'श्रानेकेरे' नामक एक सुविशाल सुन्दर सरोवर खुदवाया था, जो कि अाज जीणावस्थामें है। कहा जाता है कि अपने हाथियोंको पानी पिलाने, आदिके लिए ही राजाके द्वारा यह विशाल सरोवर खुदवाया गया था। सरोवरके नामसे भी इस बातकी पुष्टि होती है। बादमें इस सरोवरके उत्तर पार्श्वमें एक सुन्दर जिनालय भी बना है, जिसे पावापुरका अनुकरण कहा जा सकता है। रामनाथ [ ई० सन् १४१६]-इसने भी कारकलकी पूर्वदिशामें एक विशाल जलाशय निर्माण कराकर अपने ही नामपर इसका नाम 'रामसमुद्र' रखा था। वस्तुतः यह जलाशय एक छोटासा कृत्रिम समुद्र ही है। इससे कारकल निवासियोंका असीम उपकार हुआ है। ___ वीर पाण्ड्य [ई० सन् १४३१] —कारकलकी लोकविश्रुत विशाल मनोहारी गोम्मटेशमूर्तिको इसीने स्थापित किया था। इसकी प्रतिष्ठा महोत्सवमें विजयनगरका तत्कालीन शासक देवराय [ द्वितीय ] भी सम्मिलित हुआ था। मूर्ति निर्माण, प्रतिष्ठा, श्रादिका विस्तृत वृत्तांत 'गोम्मटेश्वरचरिते' में कवि चन्द्रमने सुन्दर ढंगसे दिया है उसीमें से थोड़ासा अंश नीचे उद्धृत किया जाता हैश्री बाहुबलि मूर्ति-- "मेरे महलके दक्षिण भागमें अवस्थित उन्नत पर्वत हो इस नूतन निर्मित विशालकाय जिनबिंबकी स्थापनाके लिए योग्य स्थान है, ऐसा सोचकर राजा वीरपाण्ड्यने गुरु ललितकीर्तिके पास जाकर अपने मनके शुभ विचारको उनसे निवेदन किया। ललितकीर्तिजी और वीरपाण्ड्य अपने उच्च कर्मचारियोंके साथ तत्क्षण ही उक्त पर्वतपर गये। भाग्यवश गुरु ललितकीर्तिजीकी नजर वहांपर एक विशाल शिलापर पड़ी और अभीष्ट जिनबिंब-निर्माणके लिए आपने उसी शिलाको उपयुक्त बताया। २४८
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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