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________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ करनेवाला कोई अवश्य है । उसके रहनेसे यह प्राणी-चैतन्य रहता है, उसके छोड़ देनेसे मृतक कहलाता है । वह चैतन्य शरीरके जीवनका कारण होनेसे जीव शब्दसे बोला जाता है । क्षण क्षणमें तो इस परिदृश्यमान जगतके परिणाम हुआ करते हैं। इसलिए परिणाम ही प्रतिक्षण होनेके कारण क्षणिक कहा जा सकता है । क्षणिक कहने वालोंका वास्तविक मतलब परिणामको क्षणिक कहनेका है दूसरे किसी द्रव्य, आदिको नहीं। जो शून्य कहा जाता है उसका अर्थ कथंचित् शून्य कहनेसे हैं, केवल शून्य कहनेसे नहीं । क्योंकि परिदृश्यमान विश्व कथंचित् परिणाम या पर्यायरूपसे शू-य अनित्य अथवा असत् कहा जा सकता है, द्रव्यत्व रूपसे नहीं कहा जा सकता। . यह दर्शन एक द्रव्य पदार्थ ही मानता है । गुण और पर्यायके अाधारको द्रव्य कहते हैं । ये गुण और पर्याय इस द्रव्य के ही यात्म स्वरूप हैं, इसलिए ये द्रव्यकी किसी भी हालतमें द्रव्यसे पथक नहीं होते । द्रव्य के परिणत होनेकी अवस्थाको पर्याय कहते हैं जो सदा स्थित न रहकर प्रतिक्षणमें बदलता रहता है-जिससे द्रव्य रूपान्तरमें परिणत होता है । अनुवृत्ति तथा व्यावृत्तिका साधन गुण कहलाता है, जिसके कारण द्रव्य सजातीयसे मिलते हुए तथा विजातीयसे विभिन्न प्रतीत होते रहते हैं। ___ इसकी सत्तामें इस दर्शन के अनुयायी सामान्य विशेषके ( पृथक ) माननेकी कोई आवश्यकता नहीं समझते। द्रव्य एक ऐसा पदार्थ इस दर्शनने माना है किसके माननेपर इससे दूसरे पदार्थ माननेकी अावश्यकता नहीं रहती, इसलिए इसका लक्षण करना परमावश्यक है । श्रीमान् कुन्दकुन्दाचार्य ने अपने प्रवचनसार' में द्रव्यका लक्षण यह किया है--- अपरित्यक्तस्वाभावेन उत्पादव्ययध्रुवत्वसंवद्धम् । गुणवच्चसपर्यायम् यत्तद्रव्यमिति ब्रुवन्ति ॥३॥ अर्थात् - जो अपने अस्तित्व स्वभावको न छोड़कर, उत्पाद, व्यय तथा ध्रुवतासे संयुक्त है एवं गुण तथा पर्यायका अाधार है सो द्रव्य कहा जाता है। यही लक्षण तत्त्वार्थसूत्रमें भी किया है कि “गुणपर्यय वद्रव्यम्' “उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' । यह द्रव्य जीवास्तिकाय, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, अाकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय काल इन भेदोंसे छह प्रकारका होता है । सावयव वस्तुके समूहको अस्तिकाय कहते हैं। कालको छोड़कर शेष द्रव्य सप्रदेशी हैं, इसलिए जैनन्यायमें कालको वर्जकर सबके साथ 'अस्तिकाय' शब्दका प्रयोग किया गया है। श्री कुन्दकुन्दाचार्यने श्रात्माको अरूप, अगंध, अव्यक्त, अशब्द, अरस, भूतोंके चिन्होंसे अग्राह्य, निराकार तथा चेतना गुणवाला अथवा चैतन्य माना है। १ यह शेयाधिकार में कही हुई गाथाका छायानुवाद है। ८०
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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