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________________ पौराणिक जैन इतिहास श्री प्रा० डाक्टर हरिसत्य भट्टाचार्य, एम० ए०, पीएच० डी० शलाका पुरुष-- अागमोंके अनुसार जैनधर्म अनादि है यद्यपि अाधुनिक विद्वानोंने भगवान महावीरको जैनधर्मका प्रवर्तक माननेकी भ्रान्ति की है तथापि वे दूरातिदूर अतीत कालसे लेकर समय समय पर हुए जैनधर्मके प्रमुख एवं सर्वज्ञ प्रचारक;इस युगके चौबीस तीर्थंकरोंमेंसे अन्तिम ही थे । जैन पुराणोंमें चौबीस तीर्थंकरोंके अतिरिक्त विविध शलाका ( महा ) पुरुषों के चरित्र भी भरे पड़े हैं जिनमें देव-योनिमें उत्पन्न इन्द्रादिका समावेश नहीं किया गया है । सबसे विलक्षण और मौलिक मान्यता तो यह है कि जैनधर्म वैदिक धर्मोंके समान भगवानको जगतके कर्ताके रूपमें नहीं स्वीकार करता। जैन भगवान मानव है; हां कुछ अधिक विवेकी एवं विकसित स्थिति में; वह उत्पन्न होता है, मरता है,अपने पूर्ववर्ती तीर्थंकरोंको अपना आदर्श मानता है और मोक्ष जानेके लिए उसे मानव योनिमें श्राना अनिवार्य है। इस प्रकार स्पष्ट है कि जैन भगवान तथा बौद्ध भगवानमें कई दृष्टियोंसे समानता है । जैन पुराणोंके चौदह कुलकरों ( शलाका पुरुषों ) तथा वैदिक मान्यताके चौदह मनुअोंमें भी बहुत कुछ समता है । क्योंकि ये कुलकर अपने समय के प्रजा वत्सल विशिष्ट पुरुष थे। जैन कल्प-- काल अनन्त है तथापि मानव इतिहासकी दृष्टि से उसमें करोड़ों वर्षों के समय विभागों ( कल्पों) की कल्पना की है। प्रत्येक कल्पमें उत्सर्पिणी ( वर्द्धमान चारित्र ) तथा अवसर्पिणी (हीयमान चरित्र सुख) अर्ध-चक्र होते हैं । वर्तमानमें अवसर्पिणी चल रहा है ! इनमें प्रत्येकके १-सुषमा-सुषमा ( सर्वथा सुख चारित्रमय ), २-सुषमा, ३-सुषमा-दुषमा ( सुख दुख मिश्रित ), ४-दुषमा-सुषमा, ५ दुषमा ( वर्तमान ) तथा ६-दुषमा-दुषमा भेद होते हैं । वैशिष्टय इतना है कि अवसर्पिणीका षष्ठ (दुषमा-दुषमा ) युग उत्सर्पिणीका प्रथम युग होता है। 'कुलकरअवसर्पिणीके प्रारम्भमें भोगभूमि रहती है अर्थात् मनुष्य विना श्रमके भवन, वस्त्र, भोजन, २७०
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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