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प्रत्येक आत्मा परमात्मा है !
श्री अमृतलाल " चंचल"
किसी सिद्ध सन्तसे एक जिज्ञासुने पूछा - " महात्मन् ! आखिर वे भाग्यवान कौन हैं, जिनके हृदय में सम्यक्त्व विरल रूपसे निवास करता हैं ?
महात्माजी हंस पड़े और बोले—
अरे बावरे ! सबके हृदयमें शुद्ध सम्यक्त्व समाया हुआ है - सबके हृदय शुद्ध सम्यक्त्व से जगमगा रहे हैं ! फर्क इतना ही है कि सिर्फ वीर पुरुष सिर्फ शौर्यवान पुरुष ही उसके गुणोंके प्रसूनोंकी मालिका गुथने में समर्थ होते हैं - उसके गुणोंको व्यक्त कर पाते हैं ।
और शेष ? शेष कापुरुष ! उनके हृदय में वह सम्यक्त्व रहते हुए भी नहीं ही रहने के बराबर होता है क्योंकि उनमें ज्ञान सामर्थ्य हो नहीं होती कि उसके प्रकाशको प्रकट कर सकें ।
आत्मा भी परमात्मा है और परमात्मा भी श्रात्मा ! यह बात नहीं हैं कि परमात्माकी बनावटमें किन्हीं ख़ास परमाणुत्रों का उपयोग किया गया है और आत्माकी बनावटमें किन्हीं आम का जो परमात्मा है वही और आत्मा भी है !
यहां और कुछ नहीं ! केवल एक दृष्टिमात्रका बदलना है। बूंद और लहरमें कुछ भेद नहीं; दोनों नदीसे भिन्न और कुछ वस्तु नहीं !
फर्क सिर्फ़ नामका है और वह भी एक विशिष्ट कारण से ! परमात्मा स्वयं समझाते हैं
सिर्फ अपनेको जानने व न जान लेनेका सवाल ? जिसने अपनेको जान लिया उसने बाजी मारली - परमात्मा बन गया और जो अंधकार में पड़ा रहा वह पिछड़ गया, वह बना रहा बस हेय बहिरात्मा ! और यहीं पर श्रात्मा और परमात्मा के बीच एक मोटी दीवार खड़ी है ।
* बहिरात्मा
* अंतरात्मा
* परमात्मा
इस दृष्टिसे हम हुए बहिरात्मा, या कितने ही अंशों में अन्तरात्मा पर परमात्मा नहीं ! और इसका एक यही कारण है कि हमने अपनेको नहीं जाना वस्तुके यथार्थं स्वरूपको नहीं पहिचाना ! स्वामी कुंदकुंदाचार्य रयणसार' में कहते हैं१६३
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