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________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ ब्रह्म नामक तत्त्वको भी स्वीकार करता है। इस कथनका यह अर्थ है कि सांख्य दर्शनकी तरह वेदान्त दर्शन की तत्त्व विचारणा भी प्राणियोंके पञ्च महाभूतात्मक स्थूल शरीरके निर्माण तक ही सीमित है अर्थात् वेदान्त दर्शनकी तत्त्व विचारणामें भी सांख्य दर्शनकी तरह पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तत्त्वोंकी सृष्टिका समावेश नहीं किया गया है; क्योंकि सांख्य दर्शनकी तत्त्व मान्यतामें भी पंचभूतका अर्थ पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश ग्रहण करने से पूर्वोक्त बाधाएं आ खड़ी होती हैं । सृष्टिके मूलभूत वेदान्त दर्शनके परब्रह्म नामक तत्त्वके विषयमें जैनदर्शनकी आध्यात्मिक मूल मान्यताके साथ समन्वयात्मक पद्धतिसे विचार करनेपर इन दोनोंके साम्यका स्पष्ट बोध होजाता है पूर्वोक्त कथनसे इतना तो स्पष्ट होजाता है कि प्रकृति और पुरुषको श्रादि देकर जो संसारका सृजन होता है उसके विषयमें सांख्य, वेदान्त और जैन तीनों दर्शनोंका प्राणीके शरीरकी सृष्टि के रूपमें समान दृष्टिकोण मान लेना आवश्यक है । परंतु वेदान्त दर्शनमें प्रकृति और पुरुषके मूलमें जो परब्रह्म नामक तत्त्व माना गया है उसका भी जैनदर्शन विरोध नहीं करता है। इसका श्राशय यह है कि जैनदर्शनके आध्यात्मिक दृष्टिकोणका प्रधान पात्र अात्मा ही माना गया है। क्योंकि अात्मा प्रकृति अर्थात कर्म वर्गणासे संबद्ध होकर पूर्वोक्त पांच प्रकारकी नोकर्म वर्गणाओं द्वारा निर्मित पंचभूतात्मक शरीरसे संबन्ध स्थापित करता हुश्रा जन्म-मरण परम्परा एवं सुख-दुःख परंपराके जालमें फंसा हुआ है । इसकी यह अवस्था पराधीन और दयनीय मान ली गयी है इसलिए इससे छुटकारा पाकर आत्माका स्वतंत्र स्वाभाविक स्थायी स्थितिको प्राप्त कर लेना दर्शन के आध्यात्मिक दृष्टिकोणका उद्देश्य है । जैनदर्शनमें भी वेदान्त दर्शनके परब्रह्मकी तरह अात्माको सत्, चित् और आनन्दमय स्वीकार किया गया है। इसके अतिरिक्त ज्ञाता, दृष्टा और अनन्त शक्तिसंपन्न भी उसे जैनदर्शनमें माना गया है और यह नित्य ( सर्वदा स्थायी ) है अर्थात् भिन्न-भिन्न अवस्थाअोंके बदलते हुए भी इसका मूलतः कभी नाश नहीं होता है । ऐता अात्मा ही अपनी वैभाविक शक्तिके द्वारा प्रकृतिके साथ संबद्ध होकर संसारी बना हुआ है । यह संसारी आत्मा जब मुमुक्षु हो जाता है तो अपने शुद्ध स्वरूपको लक्ष्यमें रखता हुआ बहिर्गत पदार्थोंके संसारको धीरे धीरे नष्ट करके शुद्ध वेदान्ती (जैनदर्शनको दृष्टिमें अात्मस्थ ) होजाता है और तब वह अपने वर्तमान शरीरके छूटनेपर मुक्त अर्थात् सत्-चित्-अानन्दमय अपने स्वरूपमें लीन होजाता है । वेदान्त दर्शनका परब्रह्म भी अपनी माया शक्तिके द्वारा प्रकृतिके साथ संबद्ध होकर संसारी बनता है और वह मुमुक्षु होकर जब बहिर्गत पदार्थोंसे पूर्णतः अपना संबन्ध विच्छेद करके अात्मस्थ होजाता है तब वर्तमान शरीरके छूट जानेपर सत्-चित्-अानन्दमय परब्रह्मके स्वरूपमें लीन होजाता है । इसप्रकार इस प्रक्रियामें तो जैनदर्शनका वेदान्त दर्शनके साथ वैमत्य नहीं हो सकता है। केवल वेदान्त दर्शनको मान्य परब्रह्मकी व्यापकता और एकमें ही नाना जीवोंकी उपादान ३४
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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