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________________ जैन दर्शनका उपयोगिता वाद दस इन्द्रियां को गिनाया गया है उन दस इन्द्रियोंको ही यद्यपि जैनदर्शन में उक्त लब्धीन्द्रियों में नहीं लिखा गया है परन्तु सांख्य दर्शनके ज्ञानेन्द्रिय पदका जैनदर्शन के लब्धीन्द्रिय पदके साथ और सांख्य दर्शन के कर्मेन्द्रिय पदका जैनदर्शन के उपयोगेन्द्रिय पदके साथ साम्य अवश्य है; क्योंकि लब्धीन्द्रिय पदमें पठित लब्धिशब्दका ज्ञान और उपयोगेन्द्रिय पद में पठित उपयोग शब्दका व्यापार अर्थात् क्रिया अथवा कर्म अर्थ करनेपर भी जैनदर्शनका अभिप्राय अक्षुण्ण बना रहता है । और यदि सांख्य दर्शनके पांच भूतोंसे प्राणी के शरीर की श्रवयवभूत पांच स्थूल इन्द्रियोंका अभिप्राय ग्रहण कर लिया जाता है तो फिर जैनदर्शन की तरह सांख्य दर्शनमें भी पांच ज्ञानेन्द्रियोंसे पांच लब्धीन्द्रियों तथा पांच कर्मेन्द्रियोंसे पांच उपयोगेन्द्रियांका अभिप्राय ग्रहण करना ही युक्तिसंगत प्रतीत होता है। बुद्धि और अहंकारका आधार स्थल जैनदर्शन में मनको माना गया है और इसे भी प्राणी के शरीरका अन्तरंग हिस्सा कहा जासकता है। तथा इस मान्यताका सांख्य दर्शनके साथ भी कोई विशेष विरोध नहीं है । एक बात जो यहां स्पष्ट करने के लिए रह जाती वह यह है कि सांख्य दर्शनकी पांच ज्ञानेन्द्रियों के स्थान पर जैनदर्शनकी पांच लब्धीन्द्रियोंकी, पांच कर्मेन्द्रियोंके स्थानपर पांच उपयोगेन्द्रियोंकी और पांच भूतोंके स्थान पर शरीर के अवयवभूत पांच द्रव्येन्द्रियोंकी जो मान्यताएं बतलायी गयी हैं उनकी सार्थकता क्या ? इसके लिए इतना लिखना ही पर्याप्त है कि स्पर्श, रस, गंध, रूप और शब्दका ज्ञान करनेकी श्रात्मशक्ति का नाम लब्धीन्द्रिय है इसके विषयभेदकी अपेक्षा स्पर्शन, रसना, घाण, चक्षु और कर्ण ये पांच भेद होजाते हैं । उक्त श्रात्मशक्तिका पदार्थज्ञानरूप व्यापार अर्थात् पदार्थज्ञान रूप परिणतिका नाम उपयोगेन्द्रिय है | इसके भी उक्त प्रकारसे विषय भेदकी अपेक्षा पांच भेद हो जाते हैं । इसके साथ साथ उक्त श्रात्मशक्तिकी पदार्थज्ञानपरिणतिमें सहायक निमित्त शरीर के स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण ये पांच अवयव हैं इन्हें ही जैनदर्शन में द्रव्येन्द्रिय नाम दिया गया है । इसप्रकार जब हम सांख्य दर्शन की पच्चीस तत्त्ववाली मान्यता के बारेमें जैनदर्शन के दृष्टिकोणके आधारपर समन्वयात्मक पद्धतिसे विचार करते हैं तो सांख्य और जैन दोनोंके बीच बड़ा भारी साम्य पाते हैं । इसके साथ ही यह बात भी बिल्कुल साफ होजाती है कि सांख्य दर्शनकी यह मान्यता जैनदर्शनकी तरह उपयोगिता वाद मूलक है, अस्तित्व-वाद मूलक नहीं । वेदान्त दर्शनसे समन्वय पुरुष और प्रकृतिको आदि देकर बुद्धि, आदि तत्त्वोंकी सृष्टि परंपरा सांख्य दर्शन की तरह वेदान्त दर्शनको भी अभीष्ट है । सिर्फ इन दोनों दर्शनों की मान्यता में परस्पर यदि कुछ भेद है तो वह यह है कि वेदान्त दर्शन पुरुष और प्रकृतिके मूलमें एक, नित्य और व्यापक सत्, चित् और श्रानन्दमय पर - ५ ३३
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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