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श्रद्धाञ्जलि रहता है । आपको पढ़ानेकी अपेक्षा पढ़ना अधिक पसन्द है । आप संस्था स्थापित करते हैं वरन् अधिकार नहीं चाहते अतएव आप सर्व सस्थात्रोंके स्वयम्भू अधिकारी हैं। आचरणपर आपका वचपनसे ही अधिक ध्यान रहा है। श्रापका स्वभाव ही ऐसा प्रभावक है कि दश पांच त्यागी हमेशा साथमें रहा ही करते हैं, अतः स्वयं श्राप एक प्रकारके संघपति हैं।
समाजमें जितने पक्ष हैं, वर्णीजीको उनमें किसीका भी अनुगामित्व पसन्द नहीं, न किसीको अनुगामी बनाना पसन्द है। आप लोकप्रिय नेता हैं, आपका उल्लेख करते समय कोई भी 'पूज्य' पद लगाये विना सन्तोष नहीं मानता। आपके भाषणमें मधुरता और व्यक्तित्व में महान आकर्षण है। ब्रह्मचर्यका प्रताप आपके अतिवृद्ध कायमें भी प्रत्यक्ष दिखता है । बत्तीसों दांत मौजूद हैं, सब इन्द्रियां काम कर रही हैं।
आजकल आपकी दृष्टि कन्या-शिक्षणकी ओर झुक रही है। पहले आप समन्तभद्र स्वामीके ग्रन्थोंका अवलोकन करते थे और अब कुन्दकुन्द स्वामीके ग्रन्थोंका मनन करते हैं। आपने जो प्राध्यात्मिक पत्र अपने प्रेमियोंको लिखे हैं वे कालान्तर ग्रन्थका रूप धारण करेंगे।
ऐसे पूज्य, परोपकारी, वस्तुस्वरूपचिन्तक, त्यागी एवं विद्वान् पुरुषके सम्बन्धमें क्या लिख सकता हूं ! लेखक स्वयं उनके असाधारण उपकारके कारण अपने जीवन में पूर्ण परिवर्तन मानता है और अपने परसे अनुमान लगाता है कि इसी प्रकार हजारों भाइयों का जीवन परिवर्तित हुश्रा होगा। इन्दौर]--
(पं०) देवकीनन्दन, सिद्धान्तशास्त्री
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लोग कभी कभी कहते हैं कि पूज्यश्री वर्णीजीमें सरलता तथा दयाकी इतनी अधिकता है कि वे अनुशासनको नहीं बना सके। किन्तु ऐसे लोग सोचें कि 'स्वैराचार विरोधिनी' जैनी दीक्षाको क्या अस्त-व्यस्त व्यक्ति पाल सकता है। सागार और अनगार-अाचार क्या हैं ? क्या विश्वके अत्यन्त अनुशासन प्रिय जर्मन नागरिक भी उस ऊंचाई तक पहुंच सके हैं ? स्पष्ट है कि बहुलतासे व्यवसायी होनेके कारण हम गृहस्थ ही क्षत्रियों द्वारा प्राचरित तथा प्रसारित जिनधर्मके अयोग्य हो गये हैं। इसीलिए हम अनायक या बहुनायक हैं । पूज्य श्री बाबाजी तो अनुशासन क्या आत्मानुशासन और एकताके आदर्श हैं । यही कारण है कि दर्शनार्थी उनके पीछे चलता है और विविध विचारोंके लोग उनके पास जाकर विरोध भूल जाते हैं। संसारके दुःखसे बचने तथा लौकिक और लोकोत्तर सुखको पानेके लिए चले इस महा समरके महा सेनानी वर्णोजी से यदि कोई वस्तु जैनसमाज तथा मानवसमाजको सीखनी है तो वह है अात्मानुशासन, जिसके आते ही लौकिक अनुशासन स्वयमेव प्राप्त हो जाता है। मुझे जब जब उनका ध्यान आता है तो मुख से यही निकलता है 'चिरायु हों हमारे बाबाजी ।' सागर]
(पं०) मुन्नालाल रांधेलीय, न्यायप्तीथ पचीस