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हिंसाकी साधना पद प्राप्त गृहस्थोंको अपने सरल शुभ प्रवृत्तिरूप मार्ग से विचलित करके उन्हें उनके लिए कठिन मार्ग में लगा दें जिससे कि वे किसी ओर के न रहें ।
इसमें कोई शक नहीं कि अहिंसापथ के पथिककी संहनन शक्तिकी परीक्षा के लिए उसे प्रथम ऊंचा पथ दिखाया जाय जैसा कि कहा है
"जो तुच्छ बुद्धि उपदेशक साधु धर्मको नहीं कहकर गृहस्थधर्मका उपदेश देता है वह जिनवरके मत से दंड देने योग्य है ।"
किन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं लेना चाहिये कि अहिंसापथके पथिकोंको ऊंचे पथमें ज्यों-त्यों ढकेल देनेका षड्यंत्र है। बल्कि अहिंसा पथमें पैर रखनेके पहिले पथिकको खूब सावधान कराना चाहिये । कहा है
"अपना कल्याण चाहने वालोंको अपनी शक्ति देश, काल, स्थान, सहायक, आादि बातोंका अच्छी तरह विचार करके व्रत ( हिंसा मार्ग ) ग्रहण करना चाहिये ।"
और इसका यह भी तात्पर्य नहीं लेना चाहिये कि ग्रहस्थ महान अहिंसा के मार्ग में बढ़नेका अभ्यास न करे । किन्तु मौके मौके पर अपने पद और शक्ति के अनुसार उचित अभ्यास अवश्य करते रहना चाहिये, क्यों कि आखिरकार मनुष्यको परम हिंसा परम पुरुषार्थ रूप जो मोक्ष या परम ब्रह्मत्व है उसे तो प्राप्त करना ही है ।
१ पुरुषार्थं सिद्धियुपाय श्लो० १८ ।
२ सागारधर्मामृत २७९ ।
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