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संस्कृत साहित्यके विकासमें जैन विद्वानोंका सहयोग
रचनाएं हैं। चित्रकाव्यमें महाकवि धनञ्जय (८ वीं० श० ) का द्विसन्धान, शान्तिराजका पञ्चसन्धान, हेमचन्द्र तथा मेधविजयगणीके सप्तसन्धान, जगन्नाथ (१६६६ वि० सं० ) का चतुर्विंशति सन्धान तथा जिनसेनाचार्यका पार्वाभ्युदय उत्तमकोटिके चित्रकाव्य हैं।
दूतकाव्यमें मेघदूतकी पद्धति पर लिखे गये वादिचन्द्रका पवनदूत, चरितसुन्दरका शीलदूत, विनयप्रभका चन्द्रदूत, विक्रमका नेमिदूत और जयतिलकसू रिका धर्मदूत उल्लेखनीय दूत-काव्य हैं।
__इनके अतिरिक्त चन्द्रप्रभसूरिका प्रभावकचरित, मेरुतुङ्गकृत प्रबन्धचिन्तामणि ( १३०६ ई०) राजशेखरका प्रबन्धकोष (१३४२ ई० ) आदि प्रबन्धकाव्य ऐतिहासिक दृष्ठिसे बड़े हो महत्वपूर्ण हैं ।
छन्दशास्त्र--
छन्दशास्त्र पर भी जैन विद्वानोंकी मूल्यवान रचनाएं उपलब्ध हैं । जयकीर्ति (११६२) का स्वोपज्ञ छन्दोऽनुशासन तथा प्राचार्य हेमचन्द्रका स्वोपज्ञ छन्दोऽनुशासन महत्वकी रचनाए हैं । जयकीर्तिने अपने छन्दोऽनुशासनके अन्तमें लिखा है कि उन्होंने माण्डव्य, पिङ्गल, जनाश्रय, सैतव, श्रीपूज्यपाद और जयदेव आदिके छन्दशास्त्रोंके अाधारपर अपने छन्दोऽनुशासनकी रचना की है। वाग्भटका छन्दोऽनुशासन भी इसी कोटिकी रचना है और इसपर इनकी स्वोपज्ञ टीका भी है। राजशेखरसूरि (११७९ वि० ) का छन्दःशेखर और रत्नमंजूषा भी उल्लेखनीय रचनाएं हैं ।
इसके अतिरिक्त जैनेतर छन्दशास्त्रों पर भी जैनाचार्योंकी टीकाएं पायी जाती हैं । केदारभट्टके वृत्तरत्नाकर पर सोमचन्द्रगणी, क्षेमहंसगणी, समयसुन्दर उपाध्याय, आसड और मेरुसुंदर, श्रादिकी टीकाएं उपलब्ध हैं । इसी प्रकार कालिदासके श्रुतबोध पर भी हर्षकीर्ति, हंसराज, और कान्तिविजयगणीकी टीकाएं प्राप्य हैं । संस्कृत भाषाके छन्दःशास्त्रोंके सिवा प्राकृत और अपभ्रंश भाषाके छन्द शास्त्रोंपर भी जैनाचर्योंकी महत्वपूर्ण टीकाएं उपलब्ध हैं । कोश
कोशके क्षेत्रमें भी जैन साहित्यकारोंने अपनी लेखनीका यथेष्ट कौशल प्रदर्शित किया है। अमरसिंहगणीकृत अमरकोष संस्कृतज्ञ समाजमें सर्वोपयोगी और सर्वोत्तम कोष माना जाता है। उसका पठन-पाठन भी अन्य कोषोंकी अपेक्षा सर्वाधिक रूपमें प्रचलित है। धनञ्जयकृत धनञ्जय नाममाला दो सौ श्लोकोंकी अल्पकाय रचना होने पर भी बहुत ही उपयोगी है। प्राथमिक कक्षाके विद्यार्थियों के लिए जैनसमाजमें इसका खूब ही प्रचलन है।
१ मांडव्य-पिङ्गल-जनाश्रय-सैतवाख्य, श्रीपूज्यपाद-जयदेव बुधादिकानाम् । छन्दांसि वीक्ष्य विविधानपि सत्प्रयोगान्, छन्दोऽनुशासनमिदं जयकीर्तिनोक्तम् ।।
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