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________________ स्याद्वाद और सप्तभंगी ही सङ्कलित कर सकता है । जो वाद भिन्न रहकर पाखण्ड बनते हैं वे ही स्याद्वाद द्वारा समन्वित होकर पदार्थकी संपूर्ण अभिव्यक्ति करने लगते हैं । ___ स्याद्वाद सहानुभूति मय है, इसलिए उसमें समन्वयकी क्षमता है । उसकी मौलिकता यही है कि वह पड़ौसी वादोंको उदारताके साथ स्वीकार करता है पर वह उनको ज्योंका त्यों नहीं लेता। उनके साथ रहनेवाले अाग्रहके अंशको छांटकर ही वह उन्हें अपना अङ्ग बनाता है। मनुष्यको कोई भी स्वीकृतिजिसमें किसी तरहका आग्रह या हट न हो-स्याद्वादके मन्दिर में गौरवपूर्ण स्थान पा सकती हैं। तीन सौ तरेसठ प्रकारके पाखण्ड तभी मिथ्या हैं जबतक उनमें अपना ही दुराग्रह है। नहीं तो वे सभी सम्यग्ज्ञानके प्रमेय हैं। स्याद्वाद परमागमका जीवन है। वह परमागममें न रहे तो सारा परमागम पाखण्ड होजाय । उसे इस परमागमका बीज भी कह सकते हैं। क्योंकि इसीसे सारे परमागमकी शाखाएं ओत प्रोत हैं। स्याद्वाद इसीलिए है कि जगतके सारे विरोधको दूर कर दें । यह विरोधको वरदाश्त नहीं करता इसीसे हम कह सकते हैं कि जैन धर्म की अहिंसा स्याद्वादके रग रगमें भरी पड़ी है। जो वाद विना दृष्टिकोणके हैं, स्याद्वाद उन्हें दृष्टि देता है कि तुम इस दृष्टिकोणको लेकर अपने वादको सुरक्षित रखो, पर जो यह कहनेके श्रादी हैं कि केवल हमारा ही कहना यथार्थ है, स्याद्वाद उनके विरुद्ध खड़ा होता है, और उनका निरसन किये विना उसे चैन नहीं पड़ती, इसलिए कि वे ठीक राह पर आ जावें और अपने अाग्रह द्वारा जगतमें सङ्घर्ष उत्पन्न करनेके कारण न बने । awar AS TRENDS
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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