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________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ बोध हो तो विकलादेश होता है। इस वक्तव्यका यह अर्थ हुअा कि पदार्थ प्रमाण दृष्टिसे अनेकान्तात्मक और नय दृष्टि से एकान्तात्मक है । किन्तु सर्वथा अनेकान्तात्मक और सर्वथा एकान्तात्मक नहीं है । इस आशयको प्रकट करनेके लिए हमें उपर्युक्त प्रत्येक वाक्यके साथ 'स्यात्' कथंचित अथवा किसी अपेक्षासे, आदिमें से किसी एक का प्रयोग करना चाहिए। यदि हम किसी कारण प्रयोग न भी करें तो भी हमारा अभिप्राय तो ऐसा रहना ही चाहिए। नहीं तो यह सब व्यवस्था और इनमें उत्पन्न होने वाला ज्ञान मिथ्या हो जायगा। स्याद्वाद छल अथवा संशयवाद नहीं-- स्याद्वादकी इस अनेकान्तात्मक प्रक्रियाको कभी कभी लोग छल अथवा संशयवाद कह डालते हैं । किन्तु यह भूल भरी बात है । क्योंकि संशयमें परस्पर विरोधी अनेक वस्तुत्रोंका शंकाशील भान होता है, पर स्याद्वाद तो परस्पर विरुद्ध सापेक्ष पदार्थोंका निश्चित ज्ञान उत्पन्न करता है और छलकी तो यहां संभावना ही नहीं है । छलमें किसीके कहे हुए शब्दोंका उसके अभिप्रायके विरुद्ध अर्थ निकालकर उसका खण्डन किया जाता है पर स्याद्वादमें यह बात नहीं है । वहां तो प्रत्येकके अभिप्रायको यथार्थ दृष्टिकोण द्वारा ठीक अर्थमें समझनेका प्रयत्न किया जाता है। इसी तरह विरोध वैयधिकरण्य, आदि अाठ दोष भी स्याद्वाद में नहीं आते जो सारे विरोधों को नष्ट करने वाला है उसमें इन दोषो का क्या काम ? स्याद्वाद और लोक व्यवहार स्याद्वादका उपयोग तभी है जब व्यावहारिक जीवनमें उतारा जाय । मनुष्य के प्राचार-विचार और ऐहिक अनुष्ठानोंमें स्याद्वादका उपयोग होनेकी आवश्यकता है । स्याद्वाद केवल इसीलिए हमारे सामने नहीं पाया कि वह शास्त्रीय नित्यानित्यादि विवादोंका समन्वय कर दे। उसका मुख्य काम तो मानवके व्यावहारिक जीवन में आजानेवाली मूढ़ताओंको दूर करना है। मनुष्य परम्पराओं व रूढियों से चिपके रहना चाहते हैं । यह उनकी संस्कारगत निर्बलता है। ऐसी निर्बलताओंको स्याद्वादके द्वारा ही दूर किया जासकता है। स्याद्वादको पाकर भी यदि मनुष्य द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके द्वारा होनेवाले परिवर्तनोंको स्वीकार न कर सके, उसमें विचारों की सहिष्णुता न हो तो उसके लिए स्याद्वाद विल्कुल निरुपयोगी है। दुःख है कि मानवजातिके दुर्भाग्यसे इस महामहिमवादको भी लोगोंने अाग्रह-भरी दृष्टिसे ही देखा और इसकी असली कीमत अांकनेका प्रयत्न नहीं किया। हजारों वर्षों से ग्रन्थोंमें आरहे इसको जगत अब भी आचारका रूप दे दे तो उसकी सब आपदाएं दूर हो जाय । भारतमें धर्मों की लड़ाइयां तब तक बंद नहीं होगी जब तक स्याद्वादके ज्योतिर्मय नेत्रका उपयोग नहीं किया जायगा। उपसंहार-- स्याद्वाद सर्वाङ्गीण दृष्टि कोण है। उसमें सभी वादोंकी स्वीकृति है, पर उस स्वीकृतिमें अाग्रह नहीं है । आग्रह तो वहीं है जहांसे ये विवाद आये हैं । टुकड़ोंमें विभक्त सत्यको स्याद्वाद २४
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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