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एक अज्ञात कन्नड़ नाटककार
श्री एम० गोविन्द पाई
अंगरारया कृत 'मित्रविन्द - गोविन्दा'
१८०० ई० तकके कन्नड साहित्य में एकमात्र नाटक है । मैसूरके राजा चिक्कदेवराय ( १६७२ - १९०४ ) की राजसभा के शेरी वैष्णव' कवि थे । यह नाटक भी श्री हर्ष के रत्नावलि नाटकका भाषान्तर मात्र है जिसमें केवल पात्रोंकी संज्ञाएं परिवर्तित कर दी गयीं हैं। आपाततः जिज्ञासा होती है कि कालिदासके मालविकाग्निमित्रमें उल्लिखित सौमिल्ल कविपुत्रादि के नाटकों के समान किसी प्राचीनतर कन्नडिंग कविके नाटक भी तो कहीं लुप्त अथवा गुप्त नहीं हो गये हैं । महाकवि रन्नके गदायुद्ध ( १००७ ई० ) में चित्रित कञ्चुकी एवं विदूषकादि पात्रोंकी उपस्थिति विशेष कर इस ओर आकृष्ट करती है क्योंकि संस्कृत साहित्य के महाकाव्यों में इनका चित्रण नहीं पाया जाता है । अतः अनुमान किया जा सकता है कि प्रारम्भमें रन्न अपनी कृतिको नाटक रूप देना चाहते थे और बाद में महाकाव्य रूप दे गये । फलतः इतना कहा ही जा सकता है कि उनके सामने संभवतः कोई नाटक अवश्य थे ।
गद्य-पद्यमय पञ्चतन्त्र नामका एक कन्नड ग्रन्थ है इसके रचयिता ब्राह्मण विद्वान् दुर्गसिंह हैं। इसकी लगभग पचास प्रतियों में "अति संपन्नतेवेत्त.... प्रमदलीला पुष्पिताम्रद्रुमम् ।" श्लोक पाया जाता है । तथा जो कि मुद्रित प्रतिमें नहीं है । यह ग्रन्थ प्रजापति संवत्सरकी चैत्रशुक्ला द्वादशी सोमवारको समाप्त हुआ था । ग्रन्थ के प्रारम्भ ( पृ० ३१-३८) में लिखा है कि कवि चालुक्य वंशी जगदेकमल्ल कीर्तिविद्याधरकी राजसभा में रहते थे । सगकी सन्धिमें कवि अपना उक्त राजानोंके समय में " महासन्धिविग्रहि" रूपसे भी उल्लेख करता है ? यह राजा पश्चिम चालुक्य वंशी जयसिंह – जगदेकमल्ल - कीर्त्तिविद्याधर ( १०१८१०४२ ) के सिवा दूसरा हो ही नहीं सकता। फलतः गुणाढ्यकी पैशाची वृहत्कथा से 'वसुभागभट्ट '
१ "सौमिल्ल कविपुत्रादीनां प्रबन्धात् "
२ मैसूर राजकीय सरस्वती सदन तथा दि० जैन सिद्धान्त भवन आरा में संचित प्रतियां ।
१३ कर्णाटक काव्यमञ्जरी माला में प्रकाशित २३ वां पुष्प (१८९८ )
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