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कन्नड़ भाषाको जैनोंकी देन
वृत्तविलासकी धर्मपरीक्षाकी भी यही स्थिति है । यह अमितगतिकी धर्मपरीक्षाका कन्नड चम्पू रूप है । माधनन्दि कृत शास्त्रसारसमुच्चय जैन दर्शनका विस्तृत वर्णन करता है यह कन्नड़ भाष्य युक्त सूत्रग्रन्थ है जिसके व्याख्यान पंपके आदिपुराण आदि ग्रन्थोंके उलेल्खोंसे परिपूर्ण हैं ।
किन्तु ये आकस्मिक प्रयत्न न तो जनताको तुष्ट कर सके और न उनकी ज्ञान पिपासा ही बुझा सके । मल्लिकार्जुन, (१२४५) नागवर्ग (११४५ ) केशिराज ( १२६० ) आदि भी समयकी पुकारको न समझ सके । इसीलिए आलंकारिक साहित्यके महत्त्वकी सिद्ध करनेके लिए उन्होंने क्रमशः 'सुक्ति सुधार्णव' काव्यावलोकन, शब्दमणिदर्पण, आदि ग्रन्थ लिखे जो कि सूक्ति, लक्षण तथा व्याकरणके अत्युत्तम ग्रन्थ होकर भी अपने सौ वर्ष बाद ही 'षट्पद्-ियुग' के प्रारम्भको न रोक सके ।
वैज्ञानिक विषयोंपर लिखनेवाले कतिपय विद्वानोंकी तालिका निम्न प्रकार हैश्रीधराचार्य ( १०४९) जातकतिलक । राजादित्य ( ११२० ) व्यवहार-क्षेत्र-गणित् लीलावती चित्रहसुगे । कीर्तिवर्म (११२५ ) गोवैद्य । जगद्दलसोमनाथ (११५० ) कल्याणकारक ( कर्णाटक )। रट्टकवि ( १३०० ) रट्टमत (फ० ज्यो०)।
ईनमें से भी कितने ही ग्रन्थ चम्पू शैलीमें हैं । विविध विशाल कन्नड़ साहित्यमेंसे ग्रन्थों तथा लेखकोंका यह अति संक्षप्त संकलन है । तथापि इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनाचार्योंने किस प्रकार कन्नड़ भाषा तथा साहित्यका निर्माण किया है । तथा कन्नडिगोंके लिए प्राचीन आलंकारिक संस्कृतसे सम्बद्ध करके कितनी अनुपम सम्पत्ति छोड़ी है । साहित्यके सव अंगोंमें नाटक एकमात्र अंग है जिसका अनुपातिक पोषण नहीं किया गया है। तथापि 'गुदायुद्ध' आदि ग्रन्थोंमें नाटकके समस्त गुणोंके दर्शन होते हैं ।
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